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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का कर लिया है; यद्यपि वे भी दूसरे के लिए सम्यग्दर्शन में अन्तरंग नहीं; तथापि वाणी और ज्ञानी पुरुष ह्र इन दोनों निमित्तों में भेद-प्रदर्शन के लिए वाणी को बाह्य और ज्ञानी को अन्तरंग निमित्त कहा है।
यद्यपि ज्ञानी पुरुष पर हैं, फिर भी वे क्या कहना चाहते हैं; उस आत्मिक अभिप्राय को उनके समक्ष उपस्थित धर्म प्राप्त करनेवाला जीव जब पकड़ लेता है और अभिप्राय को पकड़ से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जाती है, तब उस ज्ञानी पुरुष को जिससे उपदेश मिला है, अन्तरंग हेतु अथवा निमित्त कहा जाता है।"
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ सम्यग्दर्शन के बाह्य सहकारी कारण (निमित्त) के रूप में वीतराग-सर्वज्ञ के मुखकमल से निकला हुआ, समस्त वस्तुओं के प्रतिपादन में समर्थ द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान को स्वीकार किया गया है और दर्शनमोहनीय के क्षयादिक के कारण ज्ञानी धर्मात्माओं को पदार्थ निर्णय में हेतुपने के कारण अंतरंगहेतु (निमित्त) उपचार से कहा गया है।
यद्यपि अन्य शास्त्रों में दर्शनमोहनीय के क्षयादिक को सम्यग्दर्शन का अंतरंग हेतु (निमित्त) और देव-शास्त्र-गरु व उनके उपदेश को बहिरंग हेतु (निमित्त) के रूप में स्वीकार किया गया है; तथापि यहाँ ज्ञानी धर्मात्माओं को अंतरंग हेतु बताया जा रहा है।
प्रश्न ह्न दर्शनमोहनीय के क्षयादिक का उल्लेख तो यहाँ भी है।
उत्तर ह हाँ; है तो, पर यहाँ पर तो जिसका उपदेश निमित्त है. उस ज्ञानी के दर्शनमोहनीय के क्षयादिक की बात है और अन्य शास्त्रों में जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है या होना है, उसके दर्शनमोह के क्षयादिक की बात है। ___एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ ज्ञानी धर्मात्माओं को उपचार से अंतरंग हेतु (निमित्त) कहा है। यद्यपि उपचार शब्द के प्रयोग से बात स्वयं कमजोर पड़ जाती है; तथापि जिनगरु और जिनागम की निमित्तता के अंतर को स्पष्ट करने के लिए ज्ञानी धर्मात्माओं को अंतरंग निमित्त कहा गया है।
जिनवाणी और ज्ञानी धर्मात्माओं में यह अंतर है कि जिनवाणी को १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ४८०-४८१
तीसरा प्रवचन तो मात्र पढ़ा ही जा सकता है; पर ज्ञानी धर्मात्माओं से पूछा भी जा सकता है, उनसे चर्चा भी की जा सकती है। जिनवाणी में तो जो भी लिखा है, हमें उससे ही संतोष करना होगा; पर वक्ता तो हमारी पात्रता के अनुसार हमें समझाता है। वह अकेली वाणी से ही सब कुछ नहीं कहता, अपने हाव-भावों से भी बहुत कुछ स्पष्ट करता है। यही अंतर स्पष्ट करने के लिए यहाँ उक्त अन्तर रखा गया है। ___ यद्यपि देव-शास्त्र-गुरु की सच्ची श्रद्धा तो सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं को ही होती है; क्योंकि देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन के स्वरूप में शामिल किया गया है; तथापि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के पहले भी देव-गुरु और उनकी वाणी पर कुछ न कुछ विश्वास-श्रद्धान तो होता ही है, अन्यथा उनकी बात को ध्यान से सुनेगा कौन ? विश्वास बिना आत्मा के स्वरूप के प्रतिपादक शास्त्रों का स्वाध्याय करेगा कौन?
उक्त श्रद्धा के स्वरूप को हम निम्नांकित उदाहरण से समझ सकते हैं
हम रेल से यात्रा कर रहे थे कि अचानक हमारे पेट में भयंकर दर्द हुआ। हम दर्द से तड़फ रहे थे। दवा के रूप में हमारे पास जो कुछ उपलब्ध था, हमने उसका उपयोग किया; पर कोई आराम नहीं हुआ।
हमें तड़फता हुआ देखकर सामने बैठे व्यक्ति ने कहा ह्र
"मेरे पास एक दवा है, जिसकी एक खुराक लेने पर पेट का दर्द एकदम ठीक हो जाता है; आप चाहे तो मैं आपको दे सकता हूँ।" ___ “क्या बात करते हो, हमने तो बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया है, उनकी दवा महीनों ली है; पर इससे छुटकारा नहीं मिला। आपकी इस छोटी-सी पुड़िया से क्या होनेवाला है ?"
मेरी यह बात सुनकर वे बोले ह्न “खाकर तो देखिये।"
पर हमने कोई ध्यान नहीं दिया और दर्द से तड़फते रहे, चीखतेचिल्लाते रहे।
उन्हें अगले ही स्टेशन पर उतरना था, सो वे उतर कर चले गये; पर उस पुड़िया को हमारे पास रखते हुए कह गये कि आप उचित समझे तो इसे ले लेना।