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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का इसप्रकार उनके लिए तो भगवान की पूजा-भक्ति की तो देव की श्रद्धा हो गई, शास्त्रों के छपाने या उनकी कीमत कम करने में कुछ पैसा दे दिया तो शास्त्र भक्ति हो गई और मुनिराज को आहारदान दे दिया तो गुरु भक्ति हो गई तथा जो लोग ऐसा नहीं करें तो वे निगुरा हो गये।
देव-शास्त्र-गुरु का सही स्वरूप समझने के अनिच्छुक और विषयकषाय की वांछावाले ये लोग अनध्यवसाई किस्म के लोग हैं।
निश्चयसम्यग्दर्शन सातवें गुणस्थान में नहीं, चौथे गुणस्थान में ही हो जाता है।
उत्पत्ति की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दो भेद माने गये हैं ह्र १. निसर्गज और २. अधिगमज।
उपदेश के निमित्त के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दर्शन को निसर्गज सम्यग्दर्शन और देशनालब्धिपूर्वक होनेवाले सम्यग्दर्शन को अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
उक्त कथन से ऐसा लगता है कि किसी-किसी को देशनालब्धि के बिना भी सम्यग्दर्शन हो सकता है; पर बात ऐसी नहीं हैक्योंकि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो पंचलब्धिपूर्वक ही होती है।
बात यह है कि जिस जीव को इसी भव में देशनालब्धि प्राप्त हई हो, उसे प्राप्त होनेवाले सम्यग्दर्शन को अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं और जिसे पूर्व भवों में देशना उपलब्ध हो गई हो और वह स्मृतिज्ञान में सुरक्षित हो तथा स्मरण में आ जाय तो उन्हें वर्तमान में प्राप्त होनेवाले उपदेश के बिना भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। इसप्रकार के सम्यग्दर्शन को निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के संदर्भ में भी स्थिति ऐसी ही है; क्योंकि जिन परिस्थितियों में जहाँ वे पैदा हुए थे, वहाँ सम्यग्दर्शन सहित पैदा होना तो संभव नहीं है। आठ वर्ष की उम्र के बाद उन्हें किसी ऐसे गुरु का सत्समागम प्राप्त नहीं हुआ कि जिसने उन्हें दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा का स्वरूप समझाया हो।
अत: इस भव में स्वामीजी ने जो कुछ उपलब्ध किया, वह सब समयसार और मोक्षमार्गप्रकाशक के गहरे स्वाध्याय के बल पर ही
तीसरा प्रवचन स्वयं उपलब्ध किया है। विगतभव में सुने हए और वर्तमान में पठित ज्ञान के आधार पर ही उन्होंने सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया।
नियमसार के अनुसार जिनसूत्र के जानकार पुरुषों के साथ-साथ जिनसूत्र (शास्त्र) भी देशनालब्धि में निमित्त होते हैं।
उक्त संदर्भ में नियमसार का निम्नांकित कथन दृष्टव्य है ह्र “सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ।।५३ ।।
(हरिगीत ) जिन सूत्र समकित हेतु पर जो सूत्र के ज्ञायक पुरुष ।
वे अंतरंग निमित्त हैं दृग मोह क्षय के हेतु से ||५३|| सम्यक्त्व का निमित्त जिनसूत्र हैं और जिनसूत्र के ज्ञायक पुरुष सम्यग्दर्शन के अंतरंग हेतु कहे गये हैं; क्योंकि उनके दर्शनमोह के क्षयादिक होते हैं।" ___ इस गाथा की टीका करते हुए मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव जो लिखते हैं, उसका भाव इसप्रकार है ह्र
"इस सम्यक्त्व परिणाम का बाह्य सहकारीकारण वीतराग-सर्वज्ञ के मुख कमल से निकला हुआ, समस्त वस्तुओं के प्रतिपादन में समर्थ द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है और जो ज्ञानी धर्मात्मा मुमुक्षु हैं; उन्हें भी उपचार से पदार्थनिर्णय में हेतुपने के कारण अंतरंग हेतु (निमित्त) कहा है; क्योंकि उन्हें दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयादिक हैं।"
इस गाथा और इसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“जो जीव निश्चयसम्यग्दर्शन प्रकट करता है, उसको कौन निमित्त होता है ह्र इसकी पहचान इस गाथा में कराई है। सम्यग्दर्शन में निमित्त भगवान की वाणी अथवा वाणी से रचित जिनसूत्र हैं।'
जिनसूत्र के जाननेवाले पुरुष अन्तरंग निमित्त हैं। जिनसूत्र के मात्र शब्द निमित्त नहीं होते, अपितु जिनसूत्र के रहस्य को जानकर तदनुसार अन्तरंग परिणमन को प्राप्त ज्ञानी पुरुष, जिन्होंने स्वयं में सम्यग्दर्शन उपलब्ध १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ४८०