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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का उहां पहंचै, इत्यादि अद्भुत महिमां चतुर्थकालवत या नग्र विषै जिनधर्म की प्रवर्त्ति पाइए है।
सभा विषै गोमट्टसारजी का व्याख्यान होय है। सो बरस दोय तौ हूवा अर बरस दोय तांई और होइगा। एह व्याख्यान टोडरमल्लजी करें हैं।
सारां ही विषै भाईजी टोडरमलजी के ज्ञान का क्षयोपशम अलोकीक है जो गोमट्टसारादि ग्रंथां की संपूर्ण लाख श्लोक टीका बणाई और पांच सात ग्रंथां का टीका बणायवे का उपाय है।
सो आयु की अधिकता हुंवा बर्णंगा ।
अर धवल महाधवलादि ग्रंथां के खोलबा का उपाय कीया वा उहां दक्षिण देस सूं पांच सात और ग्रंथ ताड़पत्रां विषै कर्णाटी लिपि में लिख्या इहां पधारे हैं, ताकूं मलजी बांचें हैं, वाका यथार्थ व्याख्यान करैं हैं वा कर्णाटी लिपि मैं लिखि ले हैं । इत्यादि न्याय व्याकरण गणित छंद अलंकार का याकै ज्ञान पाईए है। ऐसे पुरुष महंत बुद्धि का धारक काल विषै होना दुर्लभ है । तातैं यांसूं मिलें सर्व संदेह दूरि होड़ है।
घणी लिखबा करि कहा, आपणां हेत का बांछीक पुरुष सीघ्र आय यासूं मिलाप करो।"
उक्त उद्धरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि टोडरमलजी साहब को न श्रोताओं की कमी थी और न उनके प्रति वात्सल्यभाव रखनेवाले की कमी थी।
तत्कालीन समय में अध्यात्म के रसिकों की कमी की चर्चा तो सम्पूर्ण भारतवर्ष के संबंध में थी; जो उचित ही है कि करोड़ों में हजारों तो बहुत थोड़े ही होते हैं न ?
जिस समय यह पत्र लिखा गया था उस समय और उसके सातआठ वर्ष तक पण्डितजी की आर्थिक स्थिति विशेष अच्छी नहीं थी। वे
१. जीवन पत्रिका पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्तृत्व, पृष्ठ ३३६
२. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका : पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, पृष्ठ ३४० ३. वही, पृष्ठ ३४४
दूसरा प्रवचन
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बाल-बच्चोंवाले गृहस्थ विद्वान थे। उनके दो लड़के और एक लड़की थी। लड़कों के नाम हरिचंद और गुमानीराम थे। गुमानीरामजी उन जैसे ही विद्वान थे और उन्होंने पण्डित टोडरमलजी के बाद उनके द्वारा विस्तारित आध्यात्मिक क्रान्ति का नेतृत्व किया था ।
उनके नाम से एक गुमानपंथ नामक पंथ भी चला ।
उनके बारे में पण्डित देवीदासजी गोधा सिद्धान्तसार टीका की प्रशस्ति में लिखते हैं ह्र
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'....तथा तिनिके पीछे टोडरमलजी के बड़े पुत्र हरीचंदजी तिनिते छोटे गुमानीरामजी महाबुद्धिमान वक्ता के लक्षण धारैं, तिनिके पास किछू रहस्य सुनि करि कछू जानपना भया । "
उक्त रहस्यपूर्णचिट्ठी लिखने के बाद उन्हें अपने नगर जयपुर को छोड़कर शेखावाटी के सिंघाणा नामक गाँव में आजीविका के लिए जाना पड़ा था। वहाँ वे एक जैनी साहूकार के यहाँ मुनीमी का काम करते उस जमाने में १५० किलोमीटर से अधिक दूर जाना परदेश में जाने जैसा ही था ।
इतने प्रसिद्ध विद्वान कि उनसे चर्चा करने दूर-दूर से लोग आते थे, पत्रों द्वारा अपनी शंकाओं का समाधान करते थे; फिर भी उन्हें अपनी आजीविका के लिए इतनी दूर जाकर नौकरी करनी पड़ी थी। यह एक सोचने की बात है। जो भी हो... ।
जब साधर्मी भाई रायमलजी उन्हें खोजते हुए सिंघाणा पहुँचे और उनके सामने अपने प्रश्न प्रस्तुत किये तो पण्डित टोडरमलजी ने उनके सभी प्रश्नों के उत्तर गोम्मटसार ग्रंथ के आधार पर दिये । इसकारण उनके करणानुयोग संबंधी ज्ञान की गहराई का पता ब्र. रायमलजी को लगा ।
यद्यपि वे अपनी शंकाओं का समाधान करने कुछ दिन के लिए ही वहाँ गये थे; पर उनके सत्समागम की भावना से वहीं ठहर गये।
वे उनसे इतनी गहराई से जुड़ गये कि उनके आग्रह पर टोडरमलजी ने गोम्मटसार की टीका लिखना आरंभ कर दिया तो वे उसके अध्ययन में जुट गये। वे स्वयं लिखते हैं कि वे लिखते गये और हम बाँचते गये।