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________________ २२ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का नहीं होते कि वे घास खा सकें और उन्हें हलुआ-पुड़ी कोई खिलाने से रहा। ऐसी स्थिति में उसे शेष जीवन निराहार ही बिताना होगा। जीवन-मौत की कीमत पर उस शेर ने यह सबकुछ किया। जरा सोचिये तो सही उसका शेष जीवन कैसा रहा होगा ? इस पर आप कह सकते हैं कि क्या श्रोता मांसभक्षी भी हो सकते हैं? नहीं, भाई ! हम तो यह कह रहे हैं कि प्रवचनों में आने से तो किसी पर प्रतिबंध लगाना संभव नहीं है। यह बात तो मात्र प्राथमिक श्रोता की है। श्रोता तो गणधरदेव भी हैं। श्रोता कैसा होना चाहिए ह यह जानने के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक के प्रथम अधिकार में समागत वक्ता-श्रोता संबंधी प्रकरण का गहराई से स्वाध्याय किया जाना चाहिए। मैं तो यह कह रहा था कि धर्मोपदेश देने में श्रोताओं की संख्या का विचार नहीं करना। भीड़ नहीं, पात्रता देखना चाहिए। पात्रता का अर्थ क्षयोपशम और विशुद्धिलब्धि से सम्पन्न होना है। ___ इस पर कोई कह सकता है कि हिरण को मारकर खा रहे शेर में मुनिराजों ने क्या पात्रता देखी थी ? अरे, भाई ! एक तो वे मुनिराज उस शेर के भूत और भविष्य के बारे में बहुत कुछ जानते थे; दूसरे वह शेर उक्त मुनिराजों की ओर जिज्ञासा भाव से मेढ़े की भाँति टकटकी लगाकर देख रहा था। इससे उन मुनिराजों को उसकी पात्रता ख्याल में आ गई। कोई व्यक्ति आत्मा की चर्चा को कितनी रुचिपूर्वक सुन रहा है, कितने ध्यान से सुन रहा है यह बात उसकी आँखों से पता चल जाती है। आज के श्रोताओं की स्थिति तो यह है कि तत्त्व की गंभीर से गंभीर चर्चा क्यों न चल रही हो तो भी वे बार-बार घड़ी देखने लगते हैं। यदि प्रवचन में एक घंटा से ५ मिनिट भी अधिक हो जावें तो प्रवचनकार को घड़ी दिखाने लगते हैं। फिर भी यदि वक्ता प्रवचन बंद न करें तो घड़ी लाकर सामने रख देते हैं। यह सब क्या है ? पण्डित टोडरमलजी अनुभवसंबंधी प्रश्न पूछनेवालों को उत्तर देने के पहले धन्यवाद देते हैं। दूसरा प्रवचन जिन पत्रों में अनुभवसंबंधी प्रश्न पूछे गये हों, ऐसे पत्र तो अनुभवी विद्वानों के पास ही आते हैं। वे लोग टोडरमलजी के ज्ञान पर ही रीझे थे और टोडरमलजी भी उनकी आध्यात्मिक रुचि पर रीझ गये, उन्हें धन्य कहने लगे, उनका अभिनंदन करने लगे। एक सेठजी के पास डाकुओं का पत्र आया। उसमें लिखा था कि इतने लाख रुपये लेकर अमुक स्थान पर आ जावो. नहीं तो हम आपके लड़के को पकड़ कर ले जावेंगे। सेठजी ने क्या किया ह्र इसका तो मुझे पता नहीं; पर हमने तो आजतक किसी डाकू के हस्ताक्षर ही नहीं देखे। लगता है कि इस भव में ऐसा अवसर कभी प्राप्त भी नहीं होगा; क्योंकि हमारे पास ऐसा कुछ है ही नहीं कि जो डाकुओं को चाहिए । डाकुओं के पत्र तो सेठों के पास ही आते हैं, पण्डितों के पास नहीं। अध्यात्म के विशेषज्ञ विद्वानों के पास तो अध्यात्मरुचि सम्पन्न आत्मार्थी भाई-बहिनों के ही पत्र आते हैं, उनसे मिलने भी वही लोग आते हैं। इसप्रकार उन्हें तो सदा सत्समागम ही प्राप्त होता है। ___ पण्डितजी लिखते हैं कि वर्तमानकाल में अध्यात्मरस के रसिक बहुत थोड़े हैं इसका अर्थ यह मत समझना कि उनको सुननेवाले योग्य श्रोता उपलब्ध नहीं थे; क्योंकि उनकी सभा का चित्रण साधर्मी भाई रायमलजी इसप्रकार करते हैं ह्न ___ "तिन विषै दोय जिन मंदिर तेरापंथ्यां की शैली विषै अद्भुत सोभा नैं लीयां, बड़ा विस्तार नैं धस्यां बणें । तहां निरंतर हजारां पुरषस्त्री देवलोक की सी नाई चैत्यालै आय महा पुन्य उपारजै, दीर्घ काल का संच्या पाप ताका क्षय करै। सौ पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचनें वारे पाईए, दश बीश संस्कृत शास्त्र बांचने वारे पाईए, सौ पचास जनैं चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के सास्त्र का व्याख्यान विषै पांच से सात सै पुरष तीन सै च्यारि सै स्त्रीजन सब मिलि हजार बारा सै पुरष स्त्री शास्त्र का श्रवण करै, बीस तीस बायां शास्त्राभ्यास करै, देश देश का प्रश्न इहां आवै तिनका समाधान होय
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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