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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का साधर्मी भाई ब्र. रायमलजी का उक्त कथन इसप्रकार है ह्र
"पीछे एैसैं हमारे प्रेरकपणां का निमित्त करि इनकै टीका करनें का अनुराग भया । पूर्वे भी याकी टीका करने का इनका मनोर्थ था ही, पीछें हमारे कहनें करि विशेष मनोर्थ भया ।
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तब शुभ दिन मुहूर्त्त विषै टीका करनें का प्रारंभ सिंघांणा नग्र विषै भया । सो वै तौ टीका बणावते गए, हम बांचते गए।
बरस तीन मैं गोम्मटसार ग्रंथ की अठतीस हजार ३८०००, लब्धिसार क्षपणासार ग्रंथ की तेरह हजार १३०००, त्रिलोकसार ग्रंथ की चौदह हजार १४०००, सब मिलि च्यारि ग्रंथां की पैंसठि हजार (श्लोक प्रमाण) टीका भई ।
पीछें सवाई जैपुर आए। तहां गोमटसारादि च्या ग्रंथां कूं सोधि याकी बहोत प्रति उतराई। जहां सैली छी तहां सुधाइ सुधाड़ पधराई । असे या ग्रंथां का अवतार भया । "
उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका सिंघाणा में ही लिखी जा चुकी थी। उसके बाद ब्र. रायमलजी के साथ पण्डितजी जयपुर आये और यहाँ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका अर्थात् गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड और लब्धिसार-क्षपणासार की टीका के प्रचार-प्रसार का काम जोरदार ढंग से आरंभ हुआ।
विक्रम संवत् १८१८ में पण्डित टोडरमलजी जयपुर आये । उसके पूर्व लगभग ४ वर्ष तक सिंघाणा रहे । ब्र. रायमलजी उनसे मिलने विक्रम सं. १८१५ में वहाँ पहुँचे और लगभग ३ वर्ष तक वहीं रहें। उसी काल में सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की रचना हुई।
ऐसा लगता है कि साधर्मीभाई रायमलजी ने जयपुरवालों को समझाया होगा कि तुम कैसे लोग हो। तुम्हें इतना बड़ा विद्वान सहज ही उपलब्ध है और तुम लोग उनका लाभ नहीं उठा रहे । उनका अधिकांश समय मुनीमी करने में जा रहा है।
कोई व्यक्ति मात्र आजीविका के लिए आठ-दस घंटे तन तोड़ मेहनत १. जीवन पत्रिका पण्डित टोडरमल व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व, पृष्ठ ३३५
दूसरा प्रवचन
करे, थककर चकनाचूर हो जाये; ऐसी स्थिति में वह अपने आत्मकल्याण के योग्य स्वाध्याय कर ले ह्न यही बहुत है। उससे शास्त्रों की टीका करने जैसे काम की अपेक्षा करना उचित नहीं है; तथापि पण्डितजी ने सिंघाणा में उक्त परिस्थिति में भी यह सबकुछ करके दिखा दिया था । वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे।
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आज कुछ लोग समझते हैं कि कार्य मुक्त (रिटायर्ड) हो जाने पर बुढ़ापे में यह काम करेंगे।
ऐसे लोग बहुत बड़े धोखे में हैं; क्योंकि जब जीवन भर समर्पित भाव से अध्ययन-मनन-चिन्तन करते हैं; तब बुढ़ापे में कुछ लिखने योग्य हो हैं। काम के योग्य न रहने से जब सरकार आपको मुक्त कर देती है; आपको बिना काम किये ही पेंशन देकर आपसे छुटकारा पाती है, तब आप यह महान कार्य करेंगे। अरे, भाई ! जो जीवन भर करेगा, वह बुढ़ापे में भी कर सकता है; पर जिसने अपना महत्त्वपूर्ण जीवन तो घृतलवण-तेल-तंडुल में बिता दिया, वह यदि बुढ़ापे में कुछ करने का प्रयास करेगा तो जिनवाणी को विकृत करने के अलावा कुछ नहीं कर पावेगा ।
जयपुर में उस समय जैनियों के १० हजार घर थे। उस समय सम्मिलित परिवार की परम्परा थी। अतः एक परिवार के १० सदस्य भी मानें तो १ लाख दिगम्बर जैन जयपुर में रहते थे।
उस समय राजा की मंत्री परिषद में ९ जैन मंत्री थे। उनमें बालचंदजी छाबड़ा और रतनचन्दजी दीवान प्रमुख थे।
जब इन दोनों को इस बात का पता चला तो वे इस दिशा में सक्रिय हो उठे। परिणामस्वरूप पण्डित टोडरमलजी को अति आग्रह पूर्वक जयपुर लाया गया और उनकी सम्पूर्ण व्यवस्था की गई। उनके साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का काम बड़े पैमाने पर किया गया।
आठ-दस प्रतिलिपिकार विद्वानों की व्यवस्था की गई, वे लोग टोडरमलजी की कृतियों की प्रतिलिपियाँ किया करते थे । उन प्रतिलिपियों को जहाँ-जहाँ स्वाध्याय की शैलियाँ थीं, वहाँ-वहाँ पहुँचाई गईं।
यह तो सर्वविदित ही है कि मृत्युदण्ड के बाद उनका सभी सामान