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________________ ३२ प्रवचनसार अनुशीलन स्वपरविभाग अस्त होने से सर्वस्वदातार मूल परमगुरु अरहंतदेव और उत्तर परमगुरु दीक्षाचार्य को नमस्कार क्रिया के द्वारा सम्मानित करके भावस्तुतिवंदनामय होता है। इसके बाद सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा समय (आत्मा) में परिणमित होते हुए आत्मा को जानता हुआ सामायिक में आरूढ़ होता है। इसके बाद प्रतिक्रमण-आलोचना-प्रत्याख्यानस्वरूप क्रिया को सुननेरूप श्रुतज्ञान के द्वारा त्रैकालिक कर्मों से भिन्न किये जानेवाले आत्मा को जानता हुआ; अतीत-अनागत-वर्तमान, मन-वचन-कायसंबंधी कर्मों से भिन्नता में आरूढ़ होता है। इसके बाद समस्त सावध कर्मों के आयतनभूत काय का उत्सर्ग (उपेक्षा-त्याग) करके यथाजातरूपवाले स्वरूप को, एक को एकाग्रतया अवलम्बित करके रहता हुआ उपस्थित होता है और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र सम्यग्दृष्टिपने के कारण साक्षात् श्रमण होता है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव एक छन्द में बड़ी ही सरलता से प्रस्तुत कर देते हैं, जो इसप्रकार है ह्न (सवैया इकतीसा ) अरहंत अथवा सु दिक्ष्या को दिवैया गुरु द्रव्य भाव लिंग को सु उपदेस करै है। तिन्है मुनि हूवे की सुइक्ष्या जो सुउभै लिंग धारि सोई महामुनि के सु पाइ पर है ।। पंच महाव्रत आदि मुनि की क्रिया समस्त सुनिक सु भव्य जती को स्वरूप धरै है। सब ही विर्षे सु समदिष्टि सबकौं सु इष्ट जैसौ साध होहि जो सु भौ समुद्र तरै है ।।१३।। गाथा २०७ ३३ ____ मुनि होने की इच्छा रखनेवाले श्रावक को अरहंत भगवान अथवा दीक्षा देनेवाले गुरु द्रव्यलिंग और भावलिंग का स्वरूप समझाते हैं और मुनिपद धारण करने का उपदेश देते हैं। ___ उनका उपदेश सुनकर दोनों लिंगों रूप मुनिधर्म धारण करके उनके पैरों में पड़ते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं। उनसे पंचमहाव्रतादि सभी क्रियाओं को सुनकर, समझकर यति के वास्तविक स्वरूप को धारण कर लेते हैं। ऐसे मुनिराजों की सभी के प्रति समदृष्टि रहती है, इसीकारण वे सबके इष्ट होते हैं और इसीप्रकार के साधु संसारसमुद्र से पार होते हैं। कविवर पण्डित वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मनहरण और ६ दोहे ह्र इसप्रकार ७ छन्दों में स्पष्ट करते हैं; जिनमें मनहरण छन्द में तो देवीदासजी के समान ही गाथा की बात को प्रस्तुत कर देते हैं, पर दोहों में तत्त्वप्रदीपिका में प्रस्तुत विषय-वस्तु को उसी रूप में विस्तार से स्पष्ट करते हैं। उनके सभी छन्द मूलत: पठनीय हैं। ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “आत्मा के भानपूर्वक कुटुंबीजनों से विदा लेकर, गुरु के पास दीक्षा लेकर, पंचमहाव्रत पूर्वक श्रामण्यार्थी जीव भाव और द्रव्यलिंग को ग्रहण करता है, गुरु को नमस्कार करता है, व्रतादि क्रियाओं को संभालता है और आत्मस्वभाव में स्थित रहता है। बाह्य में निर्ग्रन्थ लिंग न हो, वस्त्रादि से सहितपना हो, वह मुनित्व की सामग्री नहीं है। बाह्य में द्रव्यलिंगी हो जाए; किन्तु अन्तर में वीतरागतारूप भावलिंग न हो तो भी मुनिपना नहीं है। अन्तर में ज्ञायकस्वरूप का अवलंबन लेकर, बाह्य पदार्थों और पुण्य का अवलंबन छोड़कर, अन्तर स्वरूप में ठहरने का नाम भावलिंग है। बाह्य में निष्परिग्रही इत्यादि रहना तो द्रव्यलिंग है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ-४६ २. वही, पृष्ठ-४६-४७
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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