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प्रवचनसार अनुशीलन और आगमानुसार नग्न दिगम्बर दशा आदि निर्दोष आचरण का नाम द्रव्यलिंग है। छटवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में झूलनेवाले मुनिराज
और इससे भी ऊपर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी मुनिराज भावलिंगी हैं और द्रव्यलिंगी भी हैं।
ध्यान रहे अरहंत भगवान भी स्नातक निर्ग्रन्थ मुनिराज ही हैं।
जिन मुनिराजों के बाह्याचरण और शुभभाव तो जिनागमानुसार हों, पर मिथ्यात्व व अनन्तानुबंधी कषायों का अभाव न हो, उन्हें मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी कहते हैं।
जिनके बाह्याचरण और शुभभाव आगमानुसार हों और मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायों का अभाव भी हो; किन्तु अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का अभाव नहीं हो; वे चौथे गुणस्थानवाले द्रव्यलिंगी हैं।
इसीप्रकार जिनके बाह्याचरण और शुभभाव आगमानुसार हैं और मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव है, पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव नहीं है। वे पंचमगुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी हैं।
जिनके बाह्याचरण और शुभभाव भी छटवें गणस्थान की भूमिका के योग्य हैं और मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का भी अभाव है। वे सभी भावलिंगी संत हैं।
जिनके न तो मिथ्यात्व व कषायों का अभाव है और न आगमानुसार आचरण ही है। वे न तो द्रव्यलिंगी हैं, न भावलिंगी। उन्हें द्रव्यलिंगी कहना भी द्रव्यलिंग का अपमान है।
आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में धर्मविहीन श्रमणों को नटश्रमण कहते हैं और उनके भेष को गन्ने के फूल के समान बताया है, जिन पर न तो फल ही लगते हैं और न जिनमें गंध ही होती है। ____ अरे भाई ! यह बात शास्त्राधार से गहराई से समझने की है, इसमें किसी भी प्रकार का हठ ठीक नहीं है। यह विषय अत्यन्त संवेदनशील विषय है; अत: इसके प्रतिपादन में भी विशेष सावधानी रखना अत्यन्त आवश्यक है। १. अष्टपाहुड़ : भावपाहुड, गाथा ७१
प्रवचनसार गाथा २०७ विगत गाथाओं में द्रव्यलिंग और भावलिंग का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि दीक्षार्थी गुरुमुख से द्रव्यलिंग और भावलिंगरूप मुनिधर्म का स्वरूप सुनकर, समझकर; उन्हें विनयपूर्वक नमस्कार करके मुनिधर्म अंगीकार करता है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो।।२०७।।
(हरिगीत ) जो परमगुरु नम लिंग दोनों प्राप्त कर व्रत आचरें।
आत्मथित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्रिया करें।।२०७।। परमगुरु के द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगों को धारण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रिया को सुनकर, उपस्थित होता हुआ अर्थात् आत्मा के समीप स्थित होता हुआ श्रमण होता है। ___ उक्त गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "इसके बाद श्रमण होने का इच्छुक दीक्षार्थी दोनों लिंगों को धारण करता है, गुरु को नमस्कार करता है, व्रत तथा क्रिया को सुनता है और उपस्थित होता है। उपस्थित होता हुआ श्रामण्य की सामग्री पर्याप्त होने से श्रमण होता है। अब इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं ह्र
इस यथाजातरूपधरत्व के सूचक बहिरंग व अंतरंग लिंग के धारण की विधि के प्रतिपादक होने से अरहंत भगवान और दीक्षाचार्य व्यवहार से मुनिलिंग को देनेवाले कहे जाते हैं। दीक्षार्थी उक्त देने और लेने की क्रिया से उन्हें सम्मानित करके उनसे तन्मय होता है।
इसके बाद भाव्य-भावकभाव से प्रवर्तित परस्पर मिलन के कारण