________________ 248 गाथा-१५२-१५३ 255 प्रवचनसार अनुशीलन निज शुद्धात्मा प्रवचन का सारभूत है, क्योंकि सर्वपदार्थसमूह का प्रतिपादन करनेवाले प्रवचन में एक निजात्मपदार्थ ही स्वयं ध्रुवस्वरूपी है, दूसरा कोई पदार्थ ध्रुव नहीं है।' __स्वयं के लिए स्वयं का भगवान आत्मा ही ध्रुव है ह्र ऐसे निज ज्ञानानन्दमय भगवान आत्मा में स्थिर होकर वीतराग दशारूप परिणति करना ही इस प्रवचनसार का सार है।" ग्रन्थाधिराज प्रवचनसार की इस अन्तिम गाथा में जिनेन्द्र भगवान के प्रवचनों के सार इस प्रवचनसार में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान को, ज्ञानतत्त्व को, ज्ञेयतत्त्व को और श्रमणों के आचरण संबंधी सम्पूर्ण प्रकरण को जो गहराई से समझेंगे, तदनुसार अपने जीवन को ढालेंगे; उन्हें अल्पकाल में ही मुक्ति की प्राप्ति होगी। इसप्रकार चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक महाधिकार में समागत पंचरत्न अधिकार समाप्त होता है। इसके साथ ही प्रवचनसार ग्रंथ मूलतः समाप्त होता है। 1. दिव्यध्वनिसार भाग 5, पृष्ठ 502 2. वही, पृष्ठ 502 भाई! ये बननेवाले भगवान की बात नहीं है. यह तो बने-बनाये भगवान की बात है। स्वभाव की अपेक्षा तुझे भगवान बनना नहीं है, अपितु स्वभाव से तो तू बना-बनाया भगवान ही है।ह ऐसा जानना-मानना और अपने में ही जम जाना, रमजाना पर्याय में भगवान बनने का उपाय है। त एक बार सच्चे दिल से अन्तर की गहराई से इस बात को स्वीकार तो कर; अन्तर की स्वीकृति आते ही तेरी दृष्टि परपदार्थों से हटकर सहज ही स्वभाव-सन्मुख होगी, ज्ञान भी अन्तरोन्मुख होगा और तू अन्तर में ही समा जायेगा, लीन हो जायेगा, समाधिस्थ हो जायेगा / ऐसा होने पर तेरे अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द का ऐसा दरिया उमड़ेगा कि तू निहाल हो जायेगा, कृतकृत्य हो जायेगा / एक बार ऐसा स्वीकार करके तो देख। ह्रआत्मा ही है शरण, पृष्ठ-८३