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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव "हाँ भाई, चलो। पर यह याद रखना कि जिसके पास विवेक की ढाल है, उस पर तर्क के तीर काम नहीं करते और जिसके पास वैराग्य का
बल है, उस पर आँसुओं की बौछारों का कोई असर नहीं होता। हमारा · ऋषभ विवेक का भी धनी है और वैराग्य के बल से भी सुसज्जित है।"
इसप्रकार वे दोनों जने हार-जीत की शंका-आशंकाओं में डूबते-उतराते हुए ऋषभ के कक्ष की ओर जा ही रहे थे कि देखते हैं कि राजकुमार ऋषभ तो इधर ही आ रहे हैं।
"आओ, पुत्र ऋषभ ! हम तुम्हारे पास ही आ रहे थे। एक बहुत जरूरी बात करनी है।"
"आज्ञा दीजिए तात ! आपकी प्रसन्नता के लिए मुझे क्या करना है ?"
"यहाँ खड़े-खड़े बात थोड़े ही होगी, बड़ी ही गंभीर बात है। लम्बे विचार-विमर्श की जरूरत है, चलो तुम्हारे कक्ष में बैठकर शान्ति से बात करेंगे।"
"चलिये, आगे आप चलिये।"
इसप्रकार वे सभी राजकुमार ऋषभ के कक्ष में जा पहुँचे और लम्बी भूमिका बाँधते हुए नाभिराय समझाने लगे कि - "बेटा अब तुम जवान हो गये हो, सब प्रकार सुयोग्य हो; हम जानते हैं कि तुम्हें इस संसार में कोई रस नहीं है, तुम तो आत्मा में लीन होना चाहते हो; पर गृहस्थी में भी यह सब तो हो सकता है, गृहस्थ भी एक धर्म है, हमारी कामना है कि अब तुम गृहस्थ धर्म में प्रवेश करो।"
नाभिराय ने बड़ी चतुराई से अपनी बात रखी थी। वे जानते थे कि शादी की बात से तो ऋषभ का चित्त बातचीत से ही विरक्त हो जाएगा। ऋषभ की धर्मरुचि देखकर उन्होंने शादी की बात भी 'गृहस्थ धर्म में प्रवेश करो' - इस भाषा में रखी थी। पर ऋषभ जैसे प्रज्ञा के धनी राजकुमार को उनके अभिप्राय को समझते देर न लगी, पर वे कुछ बोले नहीं।