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पाँचवाँ दिन
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए नाभिराय आगे कहने लगे कि -
"तुम्हारी माँ की कामना तो तुम्हें पूर्ण करनी ही होगी। हमने तुम्हारे लिए एक से एक सुन्दर अनेक कन्यायें देखी हैं। बस तुम्हारी हाँ करने की देर है।"
"ठीक है, जैसी आपकी इच्छा" - कहते हुए ऋषभदेव बाहर चले गये।
इतनी आसानी से ऋषभ की 'हाँ' सुनकर नाभिराय और मरुदेवी चकित रह गये। ___माँ मरुदेवी कहने लगी कि - "हम तो सोचते थे कि उसे यह बात स्वीकृत कराने में दाँत-पसीना एक करना होगा, पर यहाँ तो कुछ करना ही न पड़ा, मानो वह हमारे प्रस्ताव की प्रतीक्षा ही कर रहा था। हमने इतने दिनों से कोई बात क्यों नहीं की, हमें तो बहुत पहले यह प्रस्ताव करना था। उसने तो औपचारिक 'ना' भी नहीं कही। उसके ऊपरी वैराग्य को देखकर हम तो यह समझने लगे थे कि यह तो शादी करेगा ही नहीं, पर ...।"
बीच में ही टोकते हुए नाभिराय बोले - "तुम समझती तो हो नहीं, महापुरुषों की वृत्ति और प्रवृत्ति अत्यन्त सरल और सहज होती है। वे मनाने और मनवाने में विश्वास नहीं करते।वे नकली 'हाँ' और 'ना' नहीं करते। 'मन में हो और मूंढ हिलावे' वाली प्रवृत्ति उनकी नहीं होती। ___ यदि ऋषभ ने औपचारिक भी 'ना' नहीं की तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे हमारे प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसीप्रकार उनकी तत्त्वरुचि
और वैराग्य भी ऊपरी नहीं है, गृहस्थ की भूमिकानुसार ही हैं । गृहस्थ धर्म में ऐसा ही होता है, अंतरंग रुचि भी रहती है, उचित वैराग्य भी रहता है और भूमिकानुसार राग भी होता ही है।
उनकी यह वृत्ति और प्रवृत्ति तो उनके योग्य ही है, हमने ही उन्हें समझने में भूल की थी। लोक में ऐसा बहुत होता है कि सहज तत्त्वरुचि एवं समुचित वैराग्य को देखकर लोग उनसे अधिक अपेक्षा करने लगते हैं, पर जब वैसा नहीं देखते हैं तो रुचि और वैराग्य को ऊपरी मानने लगते हैं।