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पाँचवाँ दिन
"बात तो करनी ही है; क्योंकि यह हमारा कर्तव्य भी है कि हम उसके विवाह की व्यवस्था करें, तदर्थ प्रयत्नपूर्वक उसे राजी करें। प्रत्येक माँ-बाप का यह कर्तव्य है कि वह अपनी संतान की समुचित शिक्षा-दीक्षा के बाद उसकी शादी करें, उसे गृहस्थधर्म में नियोजित करें। हमें भी अपने इस कर्तव्य का पालन करना ही है, पर व्यर्थ की कल्पनाओं के पुल बाँधना अच्छा नहीं है; क्योंकि यदि वह शादी के लिए राजी न हुआ तो फिर अधिक संक्लेश होगा। अतः सहजभाव से ही अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।"
"तुम तो पहले से ही यह मानकर चल रहे हो कि ऋषभ शादी के लिए राजी होगा ही नहीं, तो फिर तुम जोर भी कैसे दोगे ? तुम्हें अपने तर्कों पर भरोसा ही नहीं है; जिसे अपने शस्त्रों पर ही भरोसा न हो, उसकी हार तो निश्चित ही है।" ___ "तुम्हें तो अपने हथियार पर पूरा भरोसा है न ? युद्ध के मैदान में मैं तो अकेला थोड़े ही जा रहा हूँ, तुम भी तो हो साथ में; यदि मैं हार भी गया तो क्या होता है, तुम्हारे विश्वास के अनुसार तुम तो जीतोगी ही। तुम जीती तो मैं भी जीता, क्योंकि हमारी-तुम्हारी जीत-हार कोई अलग-अलग थोड़े ही है।" ___ "तुम्हारे तर्क से तो मैं जीत नहीं सकती, पर अब चलो भी, जो होगा सो देखा जायेगा। पुत्र से क्या जीतना और क्या हारना ? पुत्रों से जीतने में तो जीत है ही, हारने में भी जीत ही है, यहाँ तो जीत ही जीत है, हार है ही नहीं; निराश मत होओ, चलो, जल्दी चलो।" । ___ "इतनी जल्दी भी क्या है, मुझे अपने तर्क-वितर्क को व्यवस्थित कर लेने दो; मैं भी आसानी से हार मानने वाला नहीं हूँ। अन्त में जो भी हो, पर मैं अपनी बात पूरी शक्ति से तो रखूगा ही।" ___ "जाने भी दो, क्यों श्रम करते हो, अन्त में तो मेरे आँसू ही काम आयेंगे।"