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________________ ४ (अनुष्टुभ् ) वाचं वाचंयमीन्द्राणां वक्त्रवारिजवाहनम् । वन्दे नियमसार नयद्वयायत्तवाच्यसर्वस्वपद्धतिम् ।।२।। इस ग्रंथ की तात्पर्यवृत्ति टीका आरंभ करते हुए मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव मंगलाचरण के रूप में ७ छन्द लिखते हैं; जिसमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) जो मोह में मेरे सदृश हैं मुग्ध वश में काम के । आपके होते हुए सुगतादि को मैं क्यों नमूँ? वागीश गिरधर शिव सुगत कुछ भी कहो या न कहो । जितभवी जिनवरदेव जो उनके चरण में मैं नमूँ ॥ १ ॥ हे परमात्मन् ! आपके होते हुए मुझ जैसे मोह में मुग्ध कामविकार के वशीभूत बुद्ध और केशवादि को मैं कैसे पूज सकता हूँ ? जिन्होंने भव (चतुर्गतिरूप संसार परिभ्रमण ) को जीता है; उन प्रकाशमान परमात्मा को चाहे श्रीजिन कहो, सुगत कहो, अगधर अर्थात् गिरिधर कहो, वागीश्वर कहो या शिव कहो; मैं तो उनकी ही वन्दना करता हूँ । यद्यपि सुगत बुद्ध को, गिरधर श्रीकृष्ण को, वागीश्वर ब्रह्माजी या वाणी के अधिपति बृहस्पति को और शिव शंकर को कहा जाता है; तथापि यहाँ उक्त शब्दों का प्रयोग जैन मान्यतानुसार श्रीजिनेन्द्रभगवान के विशेषणों के रूप में किया गया I • सुगत अर्थात् मोह-राग-द्वेष का अभाव होने से शोभायमान और केवलज्ञानी होने से सम्पूर्णता को प्राप्त जिनेन्द्र भगवान । • गिरिधर अर्थात् अनन्तवीर्य के धनी जिनेन्द्र भगवान । • वागीश्वर अर्थात् दिव्यध्वनि के प्रकाशन में समर्थ जिनेन्द्र भगवान । • शिव अर्थात् कल्याणस्वरूप मुक्त दशा को प्राप्त जिनेन्द्र भगवान । इसप्रकार यहाँ उक्त शब्दों को जिनेन्द्र भगवान का विशेषण बनाकर प्रस्तुत किया गया है। जिनेन्द्र भगवान के लिए 'जितभव' विशेषण का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय के मंगलाचरण में स्वयं किया है। टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव यह कहना चाहते हैं कि जैनेतर दर्शनों में परमात्मा के लिए जिन-जिन शब्दों या नामों का प्रयोग किया जाता रहा है; हमें उन नामों से कोई विरोध नहीं है। यदि उक्त नामों का प्रयोग ऊपर कहे गये अर्थों में किया जाय तो हमें उनकी
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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