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जीव अधिकार ( गाथा १ से गाथा १९ तक ) ( मङ्गलाचरण ) ( मालिनी )
त्वयि सति परमात्मन्मादृशान्मोहमुग्धान् कथमतनुवशत्वान्बुद्धकेशान्यजेऽहम् । सुगतमगधरं वा वागधीशं शिवं वा जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रीजिनं वा ॥ १ ॥
परम-अध्यात्म के प्रतिपादक इस नियमसार नामक महाशास्त्र की रचना दिगंबर जिन परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य कुंदकुंद ने स्वयं के आम्नाय (पाठ) नामक स्वाध्याय के लिए की थी; वे प्रतिदिन इसका पाठ किया करते होंगे; इस बात के संकेत उनके निम्नांकित कथन से प्राप्त होते हैं णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं । जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।। ' ( हरिगीत )
सब दोष पूर्वापर रहित उपदेश सुन जिनदेव का । निज भावना के निमित्त से मैंने किया इस ग्रन्थ को ॥
णच्चा
पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेश को जानकर मैंने निजभावना के निमित्त से इस शास्त्र की रचना की है।
उक्त छन्द में 'णियभावणाणिमित्तं' पद इस कृति की रचना का उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
इस अनुपम कृति में जहाँ एक ओर परमवीतरागी विरक्त संत की अन्तरोन्मुखी पावन भावना का तरल प्रवाह है तो दूसरी ओर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ का उद्दाम वेग भी है । यह अ प्रकार की अनुपम बेजोड़ कृति है और इसकी प्रतिपादन शैली अन्तरोन्मुखी भावना प्रधान है।
इस कृति की संस्कृत भाषा में लिखी गई 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका के कर्ता मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव भी अन्तरोन्मुखी वृत्ति के धनी, वैराग्यरस से सराबोर भावना प्रधान सन्त थे ।
वे इस नियमसार नामक परमागम को भागवत शास्त्र कहते हैं और इसके अध्ययन का फल शाश्वत सुख की प्राप्ति बताते हैं ।
१. नियमसार गाथा १८७
२. नियमसार गाथा १८७ की तात्पर्यवृत्ति टीका