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________________ यही नियम का सार शेष संसार है। आतमहित का एकमात्र आधार है ।। इसे जानकर इसमें अपनापन करो । इसे छोड़कर सबसे अपनापन तजो ||४| इसके आराधन से सब अर्हत् बने । सभी सिद्ध भी इसका आराधन करें ।। सभी साधुगण इसका ही साधन करें । सभी मुमुक्षु इसका आराधन करें ॥५॥ है यही एक आराध्य आतमा जानिये । एकमात्र प्रतिपाद्य इसी को मानिये ।। यह ही सबकुछ और न कुछ आराध्य है । एकमात्र यह निज आतम ही साध्य है ॥६॥ निजकारण परमातम की कर साधना | बने कार्यपरमातम जो भव्यातमा ॥ उन्हें नमन कर उनसा बनने के लिए । करूँ निरंतर निज आतम की साधना ॥ ७ ॥ इसके अनुशीलन अर चिंतन-मनन से । मिला अलौकिक लाभ न उसकी होड़ है । यह नियमसार परमागम ही बेजोड़ है । इसकी गाथा टीका सभी अजोड़ हैं ||८|| प्राकृत संस्कृत नहीं जानते भव्य जो । वे भी समझें मन में यही विकल्प है ।। नियमसार की टीका आत्मप्रबोधिनी । भक्तिभाव से लिखने का संकल्प है ॥९॥ नियमसार
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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