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जीव अधिकार
(शालिनी) सिद्धान्तोद्धश्रीधवं सिद्धसेनं तर्काब्जार्क भट्टपूर्वाकलंकम्।
शब्दाब्धीन्दुपूज्यपादंच वन्दे तद्विद्याढ्यं वीरनन्दिंव्रतीन्द्रम् ।।३।। वन्दना करने में भी कोई हिचक नहीं है। नाम कुछ भी हो, पर उन नामों का प्रयोग वीतरागीसर्वज्ञ भगवान के अर्थ में होना चाहिए; क्योंकि हम तो वीतरागी-सर्वज्ञ परमात्मा के पुजारी हैं।
इसप्रकार मंगलाचरण के इस छन्द में उन जितभवी वीतरागी-सर्वज्ञ जिनदेव की वन्दना की गई है; जो मिथ्यादर्शन के अभाव से मोह में मुग्ध नहीं है और मिथ्याचारित्र के अभाव से काम के वश में भी नहीं हैं ।।१।।
इसप्रकार वीतरागी-सर्वज्ञ जिनदेव की वन्दना करने के उपरान्त अब इस दूसरे छन्द में स्याद्वादमयी जिनवाणी की वन्दना करते हैं। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) श्री जिनवर का मुखकमल जिसका वाहन दिव्य।
उभयनयों से वाच्य जो वह ध्वनि परम पवित्र ||२|| मौन सेवन करनेवाले और वाणी के संयमी मुनिराजों के इन्द्र जिनवर देवों का मुखकमल जिसका वाहन है और दो नयों के आश्रय से ही सबकुछ कहने की है पद्धति जिसकी; उस स्याद्वादमयी जिनवाणी की मैं वन्दना करता हूँ।
उक्त छन्द में समागत ‘वाचंयमी' पद का अर्थ मुनि अथवा मौन सेवन करनेवाले अथवा वाणी के संयमी होता है। इस पद का प्रयोग यहाँ जिनवरदेव के विशेषण के रूप में हुआ है। तात्पर्य यह है कि जिनवरदेव मौन सेवन करनेवाले वाणी के संयमी मुनिराजों के भी इन्द्र हैं।
इसप्रकार इस छन्द का सीधा-सादा अर्थ यह हुआ कि मैं जिनवरदेव की स्याद्वादमयी द्विनयाश्रित वाणी को नमस्कार करता हूँ।।२।।
प्रथम छन्द में जिनदेव को नमस्कार किया गया था, दूसरे छन्द में जिनवाणी की वन्दना की गई है और अब तीसरे छन्द में गुरुओं को स्मरण किया जा रहा है।
ध्यान रहे देव को नमस्कार करते समय व्यक्ति विशेष का उल्लेख न कर सामान्य रूप से जिनवरदेव को नमस्कार किया गया है। मात्र इतना ही नहीं; ‘पर नाम में क्या रखा है, गुण होना चाहिए; क्योंकि पूजनीय तो गुण हैं, नाम नहीं ह्न यह संकेत भी दिया गया है; किन्तु गुरुओं को नमस्कार करते समय नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार किया है; गुरुओं के सामान्य