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अध्यात्म के नय
व्यवहारनय
कथन उपचरित कथन हैं। जैसे - एक द्रव्य के भाव को दूसरे द्रव्य का बताना, एक द्रव्य की परिणति को दूसरे द्रव्य की बताना, दो द्रव्यों की मिली हुई परिणति को एक द्रव्य की कहना, दो द्रव्यों के कारणकार्यादिक को मिलाकर कथन करना - ये सब उपचरित कथन हैं, व्यवहारनय के कथन हैं।
भूतार्थता-अभूतार्थता - व्यवहारनय के कथन प्रयोजनवश किए गए सापेक्ष कथन हैं, पराश्रित कथन हैं; अतः कथंचित् भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और कथंचित् अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; सर्वथा अभूतार्थ नहीं है क्योंकि व्यवहारनय के विषयभूत भेद और संयोगों का अस्तित्व है। अतः विषय की दृष्टि से व्यवहारनय कथंचित् भूतार्थ हैं; किन्तु भेद
और संयोगों के आश्रय से आत्मा का अनुभव नहीं होने के कारण व्यवहारनय कथंचित् अभूतार्थ है। अथवा व्यवहारनय के विषय की सत्ता का अभाव नहीं है, अतः व्यवहारनय कथंचित् भूतार्थ है और निश्चय के समान उपादेय नहीं है, अतः कथंचित् अभूतार्थ है अथवा व्यवहारनय किन्हीं-किन्हीं को कभी-कभी प्रयोजनवान होता है, अतः कथंचित् भूतार्थ है और उसके आश्रय से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती, अतः कथंचित् अभूतार्थ है, असत्यार्थ है।
यहाँ गौण के अर्थ में असत्यार्थ का प्रयोग किया गया है, असत्य के अर्थ में नहीं। चूँकि व्यवहारनय भेदरूप कथन करता है और भेददृष्टि में निर्विकल्पता नहीं होती, इसलिए प्रयोजनवश भेद को गौण करके असत्यार्थ कहा है। जैसे - शास्त्रों में पर्याय को असत्यार्थ कहा है, यहाँ पर्यायें हैं ही नहीं - ऐसा नहीं है। किन्तु निश्चय की मुख्यता से पर्याय को गौण करके व्यवहार कहकर वहाँ से दृष्टि हटाने के प्रयोजन से उन्हें असत्यार्थ कहा है, अभूतार्थ कहा है।
अभूतार्थ व्यवहार का प्रतिपादन क्यों? - यहाँ प्रश्न उठता है कि
यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, अभूतार्थ है तो जिनवाणी में उसका प्रतिपादन क्यों किया गया है?
अनेकान्तात्मक वस्तु का विचार और विवाद का परिहार एक ही नय से नहीं होता, इसलिए वस्तु विचार के समय और किसी विषय में विवाद या संदेह होने पर जो ज्ञान दोनों नयों का आश्रय लेकर प्रवर्त होता है, वही प्रमाण माना गया है; अतः व्यवहार का प्रतिपादन आवश्यक है।
दूसरे तीर्थ की स्थापना के लिए भी व्यवहारनय आवश्यक है; क्योंकि निश्चयनय अनिर्वचनीय है और उपदेश की प्रक्रिया में व्यवहारनय प्रधान होता है।
तीसरे व्यवहार के बिना प्रारंभिक भूमिका में निश्चय समझा नहीं जा सकता और उसका प्रतिपादन भी संभव नहीं है। जैसे - मलेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता, वैसे ही व्यवहार के बिना निश्चय का उपदेश अगशक्य है। अतः निश्चय का प्रतिपादक होने के कारण अभूतार्थ व्यवहारनय का प्रतिपादन किया गया है।
उक्त तीनों कारणों से ही व्यवहारनय को कथंचित् भूतार्थ कहा गया है।
निश्चय का प्रतिपादक व्यवहारनय अभूतार्थ क्यों? व्यवहार-नय साक्षात्प्रयोजनभूत न होने से अभूतार्थ है; क्योंकि व्यवहारनय के विषयभूत संयोग व संयोगीभावों के ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। अतः उसके द्वारा मुक्ति का प्रयोजन सिद्ध न होने से यह नय अप्रयोजनभूत है। अप्रयोजनभूत होने से यह नय कथंचित् अभूतार्थ है। ___ अभूतार्थ द्वारा प्रतिपादित निश्चय भूतार्थ क्यों? - निश्चयनय साक्षात् प्रयोजनभूत होने से भूतार्थ है; क्योंकि इसी नय के विषयभूत शुद्धात्मा के आश्रय से मुक्ति की प्राप्ति होती है। अतः साक्षात् प्रयोजनभूत होने से यह नय भूतार्थ है।