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व्यवहारनय
अध्यात्म के नय मुख्यता-गौणता व विवक्षा-अविवक्षा वाणी के भेद हैं, वस्तु के नहीं । वस्तु में तो सभी गुण-धर्म समान हैसियत से सदा विद्यमान रहते हैं। उनको एक साथ कहने की सामर्थ्य वाणी में न होने के कारण वाणी में मुख्य-गौण का भेद पाया जाता है। ___मुख्य धर्म को विवक्षित धर्म और गौण धर्म को अविवक्षित धर्म कहते हैं। नयों के कथन में अविवक्षित धर्मों का निषेध नहीं किया जाता, अपितु उनके संबंध में मौन रहा जाता है। अविवक्षित धर्मों के संबंध में मौन रहना, कुछ नहीं कहना ही गौणता है।
अविवक्षित धर्मों के निषेध को नयाभास कहते हैं।
जो नय मूलरूप से आत्मा के स्वरूप को समझने-समझाने में ही काम आते हैं, उन्हें अध्यात्म के नय कहते हैं।
जैनदर्शन में मोटे तौर पर अध्यात्म के मूलनय दो बताए गए हैं - १. व्यवहारनय और २. निश्चयनय ।
सामान्य-विशेषात्मक वस्तु को सामान्य और विशेष - इन अंशों में विभाजित करके समझा जाता है। इनमें सामान्यांश को विषय करने वाला निश्चयनय होता है और विशेषांश को विषय बनाने वाला व्यवहारनय होता है।
(१) व्यवहारनय विभिन्न शास्त्रों में व्यवहारनय के बारे में विभिन्न कथन प्राप्त होते हैं - जिनमें कतिपय निम्न हैं - १. जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है, उसे
व्यवहारनय कहते हैं। २. उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं।२
३. पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैं।' ४. जिसका विषय भिन्न कर्ता--कर्मादि हैं, वह व्यवहारनय है। ५. एक ही द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावस्वरूप कहना व्यवहारनय
है। जैसे - घी का संयोग देखकर मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा
कहना व्यवहार कथन है। ६. जिस द्रव्य की जो परिणति हो उसे अन्य द्रव्य की कहना व्यवहारनय
है। ७. व्यवहारनय स्वद्रव्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण
कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है।' ८. व्यवहारनय अभूतार्थ है।
उक्त समस्त कथनों पर ध्यान देने पर निम्न निष्कर्ष निकलते हैं -
परिभाषा - जो नय एक अखण्ड वस्तु में भेद करता है और दो भिन्नभिन्न वस्तुओं में अभेद स्थापित करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं। एक ही वस्तु के धर्मों में व्यवहारनय कथंचित् भेद व उपचार करता है। ____ कार्य - व्यवहारनय का कार्य अभेद वस्तु में भेद करके समझाने के साथ-साथ भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग व उसके निमित्त से होने वाले संयोगीभावों का ज्ञान कराना और कर्ता-कर्म का भेद कर भिन्नभिन्न द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्म का संबंध बनाना है।
कथन - व्यवहारनय के कथन पराश्रित कथन हैं, सापेक्ष कथन हैं अतः उपचरित कथन हैं। दो द्रव्यों के बीच एकता संबंधी संयोगी
१. समयसार गाथा २७२ की आत्मख्याति टीका २. (अ) तत्त्वानुशासन, आ. नागसेन (ब) अनागारधर्मामृत; पं. आशाधरजी, अ.-१, श्लोक २ ३. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२४९ ४. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २५० ५. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-२४९ ६. (अ) समयसार गाथा -११(ब) पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक ५
१. (अ) द्रव्यस्वभाव प्रकाशकनयचक्र, गाथा-२६४
(ब) भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियत इतिव्यवहारः । आलापपद्धति । २. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २४८-२४९