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अध्यात्म के नय
नय के सामान्य स्वरूप
अपेक्षा का प्रयोग लोकव्यवहार में हम दिन-रात करते हैं। चीनी का डिब्बा, पप्पू का पलंग आदि प्रयोगों में डिब्बा प्लास्टिक या स्टील का होता है और पलंग लकड़ी का; पर उनका उपयोग करने की अपेक्षा हम चीनी का डिब्बा, पप्पू का पलंग कहते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों में अपेक्षा समझे बिना लोकव्यवहार चल नहीं सकता।
इसप्रकार हम देखते हैं कि अपेक्षा सहित प्रयोग करने पर भी अधिकांश जन नयों का स्वरूप नहीं जानते, भेद-प्रभेद नहीं समझते; क्योंकि जैनदर्शन के अतिरिक्त विश्व के किसी भी दर्शन में नयों की चर्चा ही नहीं है, जबकि जिनागम में नयों के स्वरूप और भेद-प्रभेद पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
नय का सामान्य स्वरूप जो वस्तु को अनेक स्वभावों से पृथक् करके एक स्वभाव में स्थापित करता है, उसे नय कहते हैं। अथवा जो अपर पक्ष का निषेध न करते हुए वस्तु के अंश का कथन करता है, उसे नय कहते हैं। कहीं-कहीं श्रुतज्ञान के विकल्प को, ज्ञाता के अभिप्राय को और वक्ता के अभिप्राय को नय कहा गया है। ___ जगत की समस्त वस्तुएँ सामान्य-विशेषात्मक हैं। ये सामान्यविशेषात्मक वस्तुएँ ही प्रमाण की विषय हैं, ज्ञान की विषय हैं। इन्हें सम्यक् जानने वाला ज्ञान ही प्रमाण हैं और नयप्रमाण का एकदेश है। १. 'नाना स्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्रापयतीति वा नयः' ।
परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृ.-२२ २. (अ) अनिराकृतप्रतिपक्षो वस्त्वंगग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नमः । प्रमेयकमल मार्तण्ड पू. ६७६
(ब) 'प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थेकांशो नयः। परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृ.-२२ ३. (अ) श्रुत विकल्पो वा ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः; आलापपद्धति । वही, पृ.-२२
(ब) णाणं होदि प्रमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावत्थो; तिलोयपण्णति, अ.-१, गा.८३ ४. स्याद्बाद मंजरी, श्लोक २८ की टीका । ५. सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः । परीक्षामुख, चतुर्थ परिच्छेद, सूत्र-१ ६. सम्यग्ज्ञानं प्रमाण । न्यायदीपिका, प्रथम पखकाश, पृ.-१
प्रमाण का विषय सम्पूर्ण वस्तु है और नय का विषय अंश है।
वस्तु के अंश का कथने करन के कारण नयों की प्रवृत्ति वस्तु के एकदेश में ही होती है। वस्तु के एकदेश का निरूपण करने वाला होने से नयों का कथन अपेक्षा सहित (सापेक्ष) ही होता है, अपेक्षा रहित (निरपेक्ष) नहीं। नयों के कथन के साथ यदि अपेक्षा न लगाई जावे तो जो बात वस्तु के अंश के बारे में कही जा रही है, उसे सम्पूर्ण वस्तु के बारे में समझ लिया जा सकता है, जो कि सत्य नहीं होगा। जैसे - यदि हम कहें कि हाथी खंभे के समान होता है, तो यह कथन पैर की अपेक्षा तो सही है; क्योंकि हाथी का पैर खंभे जैसा होता है, पर यदि अपेक्षा बताए बिना पूरे हाथी के बारे में यही कथन किया जाए तो यह सही नहीं होगा। अथवा जैसे हम कहें कि आत्मा अनित्य है' यह कथन पर्याय अपेक्षा तो सत्य है, पर यदि इसे द्रव्यपर्यायात्मक आत्मवस्तु के बारे में समझ लिया जाए तो सत्य नहीं होगा; क्योंकि द्रव्यपर्यायात्मक आत्मवस्तु तो नित्यानित्यात्मक है।
इसीलिए सापेक्षनय को ही सम्यक्नय कहा है, निरपेक्ष को नहीं। निरपेक्षनय मिथ्या होते हैं, दुर्नय कहलाते हैं।'
सम्यक्नय ही नय हैं और वह नय ज्ञानी के ही होते हैं, अज्ञानी के नहीं। अज्ञानी के नय, नय नहीं; नयाभास हैं।
ज्ञानी वक्ता अपने अभिप्रायानुसार जब अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का कथन करता है, तब कथन में वह धर्म मुख्य और अन्य धर्म गौण रहते हैं। यह मुख्यता-गौणता वस्तु में विद्यमान गुणों-धर्मों की अपेक्षा नहीं होती, अपितु वक्ता की इच्छा व प्रयोजन के अनुसार होती है।
१. (अ) निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत्; आ. समन्तभद्र,
आप्तमीमांसा, कारिका १०८ (ब) ते सावेक्खा सुणया णिखेक्खा ते वि दुण्णया होंति; कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा-२६६