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अध्यात्म के नय
निश्चयनय
अपने प्रतिपादक व्यवहार का निषेध क्यों? हम व्यवहार द्वारा प्रतिपादित विषय में ही अटक कर रह जायेंगे तो निश्चय के विषयभूत अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकेगी, शुद्धात्मा का अनुभव नहीं हो सकेगा; क्योंकि व्यवहारातीत होने के बाद ही निश्चय की प्राप्ति होती है, अतः निश्चय की प्राप्ति के लिए व्यवहार का निषेध भी आवश्यक है।
दूसरे व्यवहारनय का फल संसार ही है, अतः मुक्त होने के लिए भी व्यवहारनय का निषेध किया जाता है।
प्रतिपाद्य-प्रतिपादक संबंध - निश्चय के प्रतिपादन के लिए व्यवहार का प्रयोग अपेक्षित है। यदि व्यवहार का प्रयोग नहीं करेंगे तो वस्तु समझ में नहीं आवेगी। अतः निश्चय प्रतिपाद्य है और व्यवहार प्रतिपादक । जैसे - व्यवहार का काम भेद करके समझाना और संयोग का ज्ञान कराना है, तो वह अभेद अखण्ड वस्तु में भेद करके समझाता है, संयोग का ज्ञान कराता है; पर भेद करके भी वह समझाता तो अभेद-अखण्ड को ही है, संयोग से भी समझाता असंयोगी तत्त्व को ही है; इसीलिए उसे निश्चय का प्रतिपादक कहा जाता है। इसप्रकार निश्चय-व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक संबंध है।
निषेध्य-निषेधक संबंध - निश्चय का काम व्यवहार का निषेध करना है। अतः व्यवहारनय निषेध्य है और निश्चयनय निषेधक । जिसप्रकार साबुन को धोए बिना कपड़ा साफ नहीं होता उसीप्रकार व्यवहार के निषेध बिना निश्चय के विषयभूत शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं होती। जब व्यवहार द्वारा निश्चय के परिपूर्ण प्रतिपादन के बाद निश्चय की प्राप्ति हो जाती है तब व्यवहारातीत होने के लिए व्यवहार का निषेध किया जाता है; क्योंकि व्यवहार को छोड़े बिना निश्चय पाया नहीं जा सकता । व्यवहार की सार्थकता निषेध में है? इसप्रकार व्यवहार-निश्चय में निषेध्य-निषेधक संबंध है।
निश्चयनय विभिन्न शास्त्रों में निश्चयनय के बारे में विभिन्न कथन प्राप्त होते हैं, जिनमें कतिपय निम्न हैं - १. जो अभेद व अनुपचार से वस्तु का निश्चय करता है, उसे निश्चयनय
कहते हैं। २. सच्चे निरूपण को निश्चय कहते हैं। ३. आत्माश्रित (स्वाश्रित) कथन को निश्चय कहते हैं।' ४. जिसका विषय अभिन्न कर्ता-कर्मादि है, वह निश्चयनय है।' ५. एक ही द्रव्य के भाव को उसरूप ही कहना निश्चयनय है। जैसे -
मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना - निश्चयनय का कथन है।" ६. जिस द्रव्य की परिणति हो, उसे उस ही की कहना निश्चयनय है। ७. निश्चयनय स्वद्रव्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण
कार्यादिक को, किसी को किसी में नहीं मिलाता है, उनका यथावत् निरूपण करता है। ८. निश्चयनय भूतार्थ है।
उक्त समस्त कथनों पर ध्यान देने पर निम्न निष्कर्ष निकलते हैं - परिभाषा - जो दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में व्यवहार द्वारा स्थापित
१. (अ) द्रव्यस्वभाव प्रकाशकनयचक्र, गाथा-२६४
(ब) अभेदोनुपचारतया वस्तु निश्चियितनिश्चयः । आलापपद्धति । २. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २४८-२४९ ३. समयसार गाथा २७२ की आत्मख्याति टीका। ४. (अ) तत्त्वावनुशासन, आ. नागसेन ।
(ब) अनाचार धर्मामृत, पं. आशाधरजी, अध्याय-१, श्लोक १०२ ५. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. २४९ ६. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. २५० ७. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. २४९ ८. (अ) समयसार, गाथा-११, (ब) पुरुषार्थसिधुपाय, श्लोक-५