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________________ ५० (१) अशुद्ध निश्चयनय जैसे ह्र मैं रागी, द्वेषी हूँ। ३) सोपाधि गुण-गुणी में अभेद को विषय करने वाला है। ४) यह नय अल्पविकसित और विकारी पर्यायों को जीव कहता है। जैसे ह्र मैं मिथ्यादृष्टि हूँ। ५) जीव भाव पर्यायरूप आश्रव-बंध, पुण्य-पाप पदार्थों का कर्ता भोक्ता इस नय से हैं। जैसे ह्र मैं दानी हूँ, व्रती हूँ । ६) यह नय रागादि भावों के साथ एकता स्थापित करता है। (२) एकदेश शुद्धनिश्चयनय (अपनी पर्यायों में अभेद करता है) (अपनी पर्यायों में अभेद करता है।) १) यह नय अशुद्ध पर्याय में अभेद को विषय बनाता है। १) यह नय एकदेश शुद्ध पर्यायों में अभेद को विषय बनाता है। २) पर के लक्ष्य से उत्पन्न होने वाले रागादि भावों २) स्व के लक्ष्य से उत्पन्न होनेवाले एकदेश निर्मल को आत्मा कहनेवाला है। पर्याय सम्यक्दर्शन को आत्मा कहनेवाला है। जैसे ह्र मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। ३) निर्मल किन्तु अपूर्ण पर्याय के साथ अभेदता को विषय बनाने वाला है। ७) यह नय औदयिक और क्षायोपशमिक भावों में विद्यमान अशुद्धता के अंश के साथ जीव की अभेदता बतलाता है। अध्यात्म के नय ८) सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वेष जीव जनित हैं। ९) इसका विषय राग-द्वेषरूप पर्याय से परिणत आत्मा संसार मार्गी होने से न साधन है, न साध्य हैं; अपितु हेय है। १०) यह नय पर्यायस्वभाव को ग्रहण करता है। ११) प्रथम गुणस्थान से बारहवें तक होता है। १२) अपने अपराधों की स्वीकृतिपूर्वक परिहार अथवा अपना उपयोग पर से हटाकर अपने में लाना ही इस नय का प्रयोजन है। निश्चयनय ४) यह नय एकदेश शुद्ध-गुण और पर्यायों को जीव कहता है। जैसे ह्र मैं सम्यग्दृष्टि हूँ। ५) जीव भाव पर्यायरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष पर्यायों का कर्त्ता इस नय से है। जैसे ह्र मुनिराज को शुद्धोपयोगी कहना । ६) यह नय मुक्तिमार्ग के साथ एकता स्थापित करता है। निश्चयनय १) यह नय पूर्ण शुद्ध पर्यायों में अभेद को विषय बनाता है। २) स्व के लक्ष्य से हुई पूर्ण निर्मल केवलज्ञान पर्याय को आत्मा कहनेवाला है। जैसे ह्र वह केवलज्ञानी है। ३) निरूपाधि गुण गुणी में अभेद को विषय बनाने वाला है। ४) यह नय पूर्ण शुद्ध गुण और पर्यायों को जीव कहता है। जैसे ह्र केवलज्ञानी जीव । ५) यह नय क्षायिकभावों का कर्त्ता भोक्ता कहता है। जैसे ह्र क्षपकश्रेणी वाले मुनिराज ६) यह नय पूर्ण शुद्ध पर्याय के साथ एकता स्थापित करता है। । (७) यह नय क्षायिकभावों के साथ अभेदता बताता है। ८) इस नय से सांसारिक सुख-दुःख और राग- -द्वेष की उत्पत्ति ही नहीं है। ८) सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वे -द्वेष कर्मजनित हैं । ९) इसका विषय मोक्षरूप से परिणत आत्मा मोक्षरूप होने से साध्य है। और प्रगट करने की अपेक्षा उपादेय है। ९) इसका विषय मोक्षमार्गरूप पर्याय से परिणत आत्मा, मोक्षमार्गरूप होने से साधन है, और प्रगट करने की अपेक्षा एकदेश उपादेय है। १०) यह नय पर्यायस्वभाव को ग्रहण करता है। ११) चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें तक होता है। १२) विकारी पर्याय से पृथकता स्थापित कर अपूर्ण निर्मलपर्याय से एकता स्थापित करना ही इस नय का प्रयोजन है। १०) यह नय पर्यायस्वभाव को ग्रहण करता है। ११) चतुर्थ गुणस्थान से सिद्धों तक होता है। १२) अपूर्ण पर्याय भी नष्ट होने वाली है, अतः उसे हेय बताकर सादि-अनन्त निर्मलपर्याय से अभेदता बताना ही इसका प्रयोजन है। ७) यह नय क्षयोपशम भाव में विद्यमान शुद्धता के अंश के साथ आत्मा की अभेदता बताता है। शुद्ध निश्चयनय (३) साक्षात्शुद्ध निश्चयनय (अपनी पर्यायों में अभेद करता है।) (४) परमशुद्ध निश्चयनय (पर्यायों की चर्चा ही नहीं करता) १) यह नय पर्यायों से रहित त्रिकाली द्रव्य को विषय बनाता है। २) समस्त पर्यायों से रहित त्रिकाल स्वभाव को आत्मा कहने वाला है। जैसे ह्र कारण शुद्ध जीव । (३) समस्त विकारी और अविकारी पर्यायों से आत्मा को भिन्न बताने वाला है। ४) यह नय त्रिकाल शुद्ध सामान्यभाव का ग्रहण करता है। जैसे ह्रत्रिकाली ध्रुव परमात्मा । ५) यह नय जीव को अकर्त्ता अभोक्ता कहता है। ५१ ६) यह नय द्रव्यस्वभाव के साथ एकता स्थापित करता है। ७) यह नय पारिणामिक भाव से अभेदता बताता है। ८) इस नय से सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वेष हैं ही नहीं। ९) इसका विषय बन्ध मोक्ष से रहित शुद्धात्मा ध्येय है और आश्रय करने की अपेक्षा उपादेय है। १०) यह नय द्रव्यस्वभाव को ग्रहण करता है। ११) सभी गुणस्थानों में और गुणस्थानातीत भी होता है। १२) निर्मल पर्याय अनादि से नहीं होने के कारण उससे भी पृथकता स्थापित कर अनादि अनंत रहनेवाले द्रव्यस्वभाव में एकता स्थापित करना ही इस नय का प्रयोजन है।
SR No.009461
Book TitleNaychakra Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuddhatmaprabha Tadaiya
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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