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अध्यात्म के नय
व्यवहारनय
निश्चयनय (पर से अभेद करता है, अपने में भेद करता है)
(पर से भेद करता है, अपने में अभेद करता है) असद्भूत व्यवहारनय
सद्भूतव्यवहारनय (पर से अभेद करता है, संबंध जोड़ता है)
(अपने में भेद करता है) (१) उपचरित असद्भूतव्यवहारनय
(२) अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय (३) उपचरित (अशुद्ध) सद्भूतव्यवहारनय (४) अनुपचरित (शुद्ध) सद्भूतव्यवहारनय १) दूर के संबंध संयोग संबंध को विषय १) पास के संबंध संश्लेष संबंध को विषय १) यह नय अशुद्ध विकारी पर्यायों में १) यह नय शुद्ध पर्यायों में भेद को बनाता है। बनाता है। भेद को विषय बनाता है।
विषय बनाता है। २) माता-पिता, स्त्री-पुत्र, मकान आदि को २) देह को अपना कहने वाला है, क्योंकि इनमें २) पर के लक्ष्य से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष को २) आत्मा में गुणभेद-पर्यायभेद कर ज्ञानादि को
अपना कहने वाला है; क्योंकि इनमें संयोग संश्लेष संबंध है। यह संबंध जन्म से मरण अपना कहने वाला है; क्योंकि वे आत्मा में अपना कहनेवाला है। जैसे मुझमें ज्ञान है, संबंध है, जो सदा हमारे साथ नहीं रहते हैं। तक सदा हमारे साथ रहता है।
ही पैदा होते हैं। जैसे हू मुझमें राग-द्वेष है। दर्शन है, चारित्र है। ३) बाह्य संयोगों का ज्ञान कराता है। ३) शरीर के संयोग का ज्ञान कराता है। ३) सोपाधि गुण-गुणी में भेद को विषय करने ३) निरूपाधि गुण-गुणी में भेद को विषय करने जैसे ह्र रमेश की सम्पत्ति। जैसे ह्र शरीर मेरा है।
वाला है। जैसे ह्र जीव के मतिज्ञानादि गुण। वाला है। जैसे ह्र जीव के केवलज्ञानादिगुण । ४) यह नय उपचार में उपचार करता है। शरीर ४) यह नय भिन्न द्रव्यों में उपचार करता है ह्र ४) यह नय अल्पविकसित मतिज्ञानादि और ४) पूर्ण विकसित निर्मल केवलज्ञानादि पर्याय से संबंधित वस्तुओं को अपनी कहता है ह्र जैसे ह्र मैं गोरा, मैं बीमार आदि।
विकारी पर्यायों को जीव की कहता है। या गुण को जीव की कहता है। जैसे ह्र मेरे पिता, मेरा भाई आदि।
५) रागादि भावकर्म (संयोगीभावों) का कर्ता ५) पूर्ण विकसित निर्मल पर्यायों का कर्ता-भोक्ता ५) रोटी-मकान आदि संयोगों का एवं पंचेन्द्रिय ५) द्रव्य कर्म, नोकर्म (शरीर) का कर्ता-भोक्ता इसी नय से कहा जाता है। जैसे ह्र इसी नय से कहा जाता है। के विषयों का कर्ता-भोक्ता इसी नय से कहा इसी नय से कहलाता है।
मुझे अपनी बहन से बहुत प्रेम है।
जैसे ह जीव केवलज्ञान से सुखी होता है। जाता है ह्र जैसे ह्र मैं मकान बनाता हूँ आदि। जैसे ह्र मैं व्यायाम से स्वस्थ रहता हूँ। ६) इसका विषय अशुद्ध गुण-गुणी और ६) इसका विषय शुद्ध गुण-गुणी और ६) बाह्य विभूति समवशरण के आधार पर ६) देह के आधार पर तीर्थंकरों की स्तुति इस अशुद्ध पर्याय है।
शुद्ध पर्याय है। तीर्थंकरों की स्तुति इस नय से की जाती है। नय से की जाती है।
७) यह हमारी वर्तमान अवस्था का ज्ञान कराता है। ७) यह नय स्वभाव की सामर्थ्य का ज्ञान कराता है। ७) औपचारिकता निभानी पड़ती है, अतः ७) औपचारिकता नहीं निभानी पड़ती है, ८) यह नय आत्मा की अपूर्ण और विकृत ८ ) यह नय आत्मा में अनुपचरित रूप से विद्यमान शक्तियों उपचरित है। ___ अतः अनुपचरित है।
पर्यायों का ज्ञान कराता है।
और पूर्ण पावन व्यक्तियों का परिचय कराता है। ८) इसके बिना प्रथमानुयोग नहीं बनेगा। ८) इसके बिना चरणानुयोग नहीं बनेगा। ९) आत्मा की सुख-शांति के घातक मोहादि ९) भेद में ही उलझे रहने से अभेद-अखण्ड आत्मा ९) स्वधन-परधन, स्व-माता, पर-माता में ९) सजीव और अजीव में अंतर स्पष्ट करने परिणामों को आत्मा नहीं माना जा सकता, अतः की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए इसका निषेध किया अंतर स्पष्ट करने वाला है। वाला है।
उन्हें आत्मा कहने वाला नय कथंचित् हेय है। जाता है। अतः यह नय भी कथंचित् हेय है। १०) इस नय के बिना धार्मिक और नैतिक १०) इस नय के बिना अणुव्रत और महाव्रत १०) अपनी भूलों की पुनरावृत्ति न करने की सीख १०) अपने शुद्ध स्वरूप को समझने के लिए यह नय जीवन संभव नहीं। संभव नहीं।
देनेवाला होने से यह नय कथंचित् उपादेय है। उपयोगी है, अतः यह नय कथंचित् उपादेय है। ११) यह नय सदाचार की सिद्धि करने वाला है। ११) यह नय अहिंसात्मक आचरण की ११) यह नय वर्तमान पर्याय की पामरता का ज्ञान ११) यह नय हीनभावना से मुक्ति दिलाकर आत्मगौरव सिद्धि करनेवाला है।
कराकर उससे मुक्त होने की प्रेरणा देता है। उत्पन्न करता है।