SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म के नय अखण्डता को कायम रखकर, अन्य द्रव्यों से उसकी पृथकता स्थापित कर निज स्वभाव की ओर दृष्टि कराना ही इस नय का प्रयोजन है।' ___ हेयोपादेयता - यह नय अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा हेय है, एकदेश शुद्धनिश्चयनय और साक्षात शुद्धनिश्चयनय के दृष्टिकोण से प्रगट करने की अपेक्ष्य उपादेय हैं और परमशुद्धनिश्चयनय के दृष्टिकोण से आश्रय करने की अपेक्षा एक मात्र यही उपादेय है। (१) अशुद्धनिश्चयनय स्वरूप और विषयवस्तु - सोपाधिक गुण-गुणी और रागादि विकारी भावों से आत्मा को अभिन्न बताने वाले नय को अशुद्धनिश्चयनय कहते हैं। जैसे - मैं रागी हूँ, क्रोधी हूँ कहना अथवा मतिज्ञानादि को जीव कहना। यह नय द्रव्यांश में शुद्धता के रहते हुए भी पर्याय की अशुद्धता के आधार पर सम्पूर्ण द्रव्य को ही औदयिकवत् पूर्ण अशुद्ध कहता है।" अतः क्षयोपशमभाव में विद्यमान अशुद्धता के अंश के साथ अभेदता भी यह नय बतलाता है। ___ इसप्रकार यह नय रागादि विकारी भावों से जीव को तन्मय (अभेद) बताता है। इस दृष्टि से यह रागादि जीव के अपने ही भाव हैं, जड़कर्म के नहीं। जैसे - आत्मा रागादि रूप है। ____ इस नय से ही सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वेष आदि को जीव जनित कहा जाता है। १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१२१ २. आलापपद्धति, अन्तिम पृष्ठ-८६ ।। ३. (अ) नियमसार गाथा १८ की टीका (ब) प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति का परिशिष्ट ४. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-९० ५. क्षयोपशम भाव में शुद्धता और अशुद्धता दोनों का मिश्रण रहता है। वही, पृष्ठ-९० ६. वही, पृष्ठ-८०-८१ अशुद्धनिश्चयनय मोह, राग-द्वेषादि भावकर्मों का नाश भी इसी नय से कहा जाता है, क्योंकि इसी नय से मोहादि का अस्तित्व स्वीकार किया है। जहाँ अस्तित्व होगा, विनाश भी वहीं होगा। संक्षेप में कहें तो इस नय में द्रव्य के साथ उसकी अशुद्ध पर्याय का अभेद बताया जाता है, अशुद्ध भावों के आधार पर जीव को दर्शाया जाता है। ___ कर्ता-भोक्तापना - अशुद्ध क्षायोपशमिक भावों और औदयिक भावों का कर्ता-भोक्ता इसी नय से कहा जाता है। जीव पर्यायरूप भावाश्रव, भावबंध, भाव पुण्य-भाव पाप पदार्थों और रागादि का कर्ता-भोक्ता भी इसी नय से कहा जाता है। नाम की सार्थकता - यह नय कर्मोपाधि से उत्पन्न हुआ होने से 'अशुद्ध' कहलाता है और अपने ही भावों के साथ तन्मय होने से 'निश्चय' अंश का कथन करने के कारण 'नय' कहलाता है। इसप्रकार इसका ‘अशुद्ध निश्चयनय' नाम सार्थक है।' गुणस्थान - अशुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला यह नय प्रथम गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होता है।' यहाँ प्रश्न होता है कि अशुद्धनिश्चयनय में शुद्धोपयोग किसप्रकार घटित होगा? चूँकि शुद्धोपयोग में शुद्ध-बुद्ध, एकस्वभावी निजात्मा ध्येय होता है, इसलिए शुद्ध ध्येयवाला होने से, शुद्ध अवलम्बनवाला होने से और शुद्धात्मस्वरूप का साधक होने से अशुद्धनिश्चयनय में शुद्धोपयोग घटित होता है। प्रयोजन - यह नय विकारी भावों से एकता स्थापित कर जीव को १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-८६ २. वही, पृष्ठ-८६ ३. वही, पृष्ठ-९२ ४. वही, पृष्ठ-९३ ५. वही, पृष्ठ-९४ 21
SR No.009461
Book TitleNaychakra Guide
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShuddhatmaprabha Tadaiya
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy