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(१) अशुद्धनिश्चयनय । (२) शुद्ध निश्चयनय
शुद्धनिश्चयनय तीन प्रकार का है - (i) एकदेशशुद्ध निश्चयनय ।
(ii) साक्षात् शुद्ध निश्चयनय । (iii) परम शुद्ध निश्चयनय ।
इसप्रकार निश्चयनय भी चार प्रकार का हो गया। निश्चयनय के चारों भेदों को निम्न चार्ट द्वारा समझा जा सकता है -
निश्चयनय
१
अशुद्ध निश्चयनय
एकदेश शुद्धनिश्चयनय
अध्यात्म के नय
शुद्ध निश्चयनय
परमशुद्धनिश्चयनय
उक्त चार्ट में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'शुद्ध निश्चयनय' के तीन भेदों में एक का नाम तो 'शुद्धनिश्चयनय' ही है । इससे यह सिद्ध होता है कि ‘शुद्धनिश्चयनय' शब्द का प्रयोग १ कभी तो तीनों भेदों के समुदाय के रूप में होता है और कभी उनके एकभेद मात्र के रूप में । इस मर्म से अनभिज्ञ रहने से जिनवाणी में अनेक विरोधाभास प्रतीत होने लगते हैं।
साक्षात शुद्धनिश्चयन (शुद्ध निश्चयनय)
पाठकों की सुविधा की दृष्टि से प्रस्तुत कृति में हम भेदरूप शुद्ध निश्चयनय को सर्वत्र साक्षात् शुद्धनिश्चयनय के रूप में ही प्रस्तुत करेंगे।
भेद-प्रभेदों की सार्थकता - निश्चयनय के उक्त भेद-प्रभेदों में प्रत्येक द्रव्य की अपने गुण - पर्यायों से अभिन्नता (अभेद) को मुख्य आधार बनाया है।
१. इन प्रयोगों को देखने के लिए डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल लिखित परमभाव प्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-८०-८१ देखिए ।
२. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८१
३. वही, पृष्ठ- ८३
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निश्चयनय भेद-प्रभेद
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प्रत्येक द्रव्य अपने गुण-पर्यायों से अभिन्न एवं पर तथा पर के गुण-पर्यायों से भिन्न है। इसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन का कर्ता स्वयं है। किसी भी द्रव्य के परिणमन में किसी अन्य द्रव्य का कोई हस्तक्षेप नहीं है। निश्चयनय इस सत्य को प्रतिपादित करता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही निश्चयनय के परम शुद्धनिश्चयनय को छोड़कर अन्य तीन भेद किए गए हैं।
निश्चयनय के ये चारों भेद निज शुद्धात्मतत्त्व को पर और पर्याय से भिन्न अखण्ड त्रैकालिक स्थापित करते हैं। ये नय दृष्टि को पर और पर्याय से हटाकर स्वभावसन्मुख लाते हैं।
नयों के उक्त भेद-प्रभेदों के बारे में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि प्रत्येक नय अपनी दृष्टि से जो भी कथन करता है, सम्पूर्ण द्रव्य के बारे में ही करता है। जैसे- परमशुद्ध निश्चयनय पर्याय में अशुद्धता होने पर भी द्रव्य को शुद्ध कहता है और अशुद्ध निश्चयनय द्रव्यांश में शुद्धता के रहते हुए भी पर्याय की अशुद्धता के आधार पर सम्पूर्ण द्रव्य को ही अशुद्ध कहता है।
इसीप्रकार एकदेश शुद्ध निश्चयनय भी द्रव्यांश में अशुद्धता के रहते हुए भी एक देशशुद्धि के आधार पर संपूर्ण द्रव्य को ही शुद्ध कहता है। इस दृष्टि से ही साधक अवस्था में भी जीव सिद्धोंवत् पूर्णशुद्ध ही ग्रहण करने में आता है। इसप्रकार सभी कथनों में कोई विरोध नहीं है" एवं सभी नय अपने-अपने स्थान पर सही हैं, सत्यार्थ हैं, सार्थक हैं।
प्रयोजन - निज द्रव्य में अन्य द्रव्यों के हस्तक्षेप का निषेध एवं अपनी आन्तरिक अखण्डता (गुणभेदादि का निषेध) कर द्रव्य की
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र पृष्ठ ८३
२. वही, पृष्ठ-८४
४. वही, पृष्ठ-९०
३. वही, पृष्ठ-८९