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अध्यात्म के नय
उसके द्वारा किए गए रागादिरूप अपराधों की स्वीकृति कराता है, उनके कर्तृत्व और भोक्तृत्व को भी स्वीकार करता है, उन्हें कर्मकृत या परकृत कहकर उनका उत्तरदायित्व दूसरों पर नहीं थोपता। अपने अपराधों की स्वीकृति ही उसके दूर करने का उपाय है।' इसप्रकार यह नय हमें बताता है कि रागादि विकारी भाव स्वयं की भूल से ही स्वयं में हुए हैं, अतः उनके कर्ता-भोक्ता भी हम स्वयं ही है। अपना भला-बुरा करने में हम स्वयं समर्थ हैं और उसके लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं।
इस नय को नहीं मानने से आत्मा में रागादि भाव नहीं रहेंगे । रागादि भाव का अभाव होने पर आश्रव, बन्ध, पुण्य और पाप तत्त्व का भी अभाव हो जाने से संसार का ही अभाव हो जायेगा। संसार का अभाव होने से मोक्ष का भी अभाव हो जाएगा, क्योंकि मोक्ष संसारपूर्वक ही तो होता है।
दूसरे रागादि भाव भी आत्मा से वैसे ही भिन्न सिद्ध होंगे, जैसे कि अन्य परद्रव्य, जो कि प्रत्यक्ष से विरुद्ध है। मृत्यु के बाद देहादि परपदार्थ यहाँ रह जाते हैं, पर राग-द्वेष साथ जाते हैं।
संक्षेप में कह सकते हैं कि अशुद्ध भावों का त्याग कराके शुद्धभावों में स्थिरता कराना और अपना उपयोग पर से हटाकर अपने में लाना ही इस नय का प्रयोजन है । ४
हेयोपादेयता - राग-द्वेषादि रूप विकारी पर्यायों को ग्रहण करने वाला यह नय संसारमार्गी है।" दुःख का कारण है, अतः हेय है । अथवा इस नय का विषय राग-द्वेषादि रूप विकारीभाव होने से संसार का कारण है, दुःख का कारण है, अतः हेय है।
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-९५
२. वही, पृष्ठ-९८
४. वही, पृष्ठ-९५
३. वही, पृष्ठ-९८
५. वही, पृष्ठ १०९
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शुद्धनिश्चयनय
(२) शुद्धनिश्चयनय
शुद्ध निश्चयनय तीन प्रकार का है -
(i) एकदेश शुद्धनिश्चयनय ।
(ii) साक्षात् शुद्धनिश्चयनय । (iii) परमशुद्धनिश्चयनय ।
(i) एकदेश शुद्धनिश्चयनय
स्वरूप और विषयवस्तु – जो नय एकदेश शुद्धता से तन्मय द्रव्य सामान्य को पूर्ण शुद्ध देखता है, उसे एकदेश शुद्धनिश्चयनय कहते हैं। अर्थात् एकदेश शुद्ध पर्यायों से आत्मा को अभिन्न बताने वाले नय को एकदेश शुद्धनिश्चयनय कहते हैं। जैसे सम्यग्दर्शन पर्याय सहित आत्मा को सम्यग्दृष्टि कहना ।
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इस नय का प्रयोग क्षायोपशमिकभाव में विद्यमान शुद्धता के अंश के साथ आत्मा की अभेदता में होता है अर्थात् निर्मल किन्तु अपूर्ण पर्याय के साथ अभेदता में ही होता है। पर्याय की निर्मलता इसे अशुद्ध निश्चयनय से पृथक् रखती है एवं अपूर्णता साक्षात् शुद्धनिश्चयनय से पृथक् करती है।
यह नय एकदेश शुद्धि के आधार पर सम्पूर्ण द्रव्य को शुद्ध कहता है, एकदेश शुद्धता में पूर्ण शुद्धता का कथन करता है। इस दृष्टि से ही साधक अवस्था में भी जीव सिद्धोंवत् पूर्ण शुद्ध ही ग्रहण करने में आता है।
सांसारिक सुख-दुःख और राग-द्वेषादि औदयिक भाव इस नय से कर्मजनित कहलाते हैं ।"
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, २. वही, पृष्ठ-९१
४. वही, पृष्ठ ९०
पृष्ठ- ८५
३. वही, पृष्ठ-८९
५. वही, पृष्ठ-८१