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अध्यात्म के नय
सद्भूतव्यवहारनय के अनुपचरित और उपचरित भेदों के स्थान पर जो शुद्ध और अशुद्ध नाम प्राप्त होते हैं, उनसे सद्भूत व्यवहारनय को उपचरित कहने में संभवित संकोच स्पष्ट हो जाता है।'
सद्भूत व्यवहारनय भेद का उत्पादक है और असद्भूत व्यवहारनय उपचार का उत्पादक है। उपचार में भी उपचार का उत्पादक होने से उपचरित असद्भूतव्यवहारनय असद्भूत व्यवहारनय का ही एक भेद है। जिस असद्भूत व्यवहारनय में मात्र उपचार ही प्रवर्तित होता है; उपचार में भी उपचार नहीं, उस असद्भूत व्यवहारनय को उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पृथक बताने के लिए अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय नाम से भी कहा जाता है।
भेद-प्रभेदों की सार्थकता - विश्व की संरचना और स्वचालित पूर्ण व्यवस्थित-व्यवस्था समझाने के लिए व्यवहारनय के उक्त भेदप्रभेद सार्थक भी हैं, आवश्यक भी हैं, क्योंकि विश्व अनन्तानन्त द्रव्यों का समूह है। अनन्तानन्त द्रव्य उसकी इकाइयाँ हैं। प्रत्येक इकाई अर्थात् प्रत्येक द्रव्य सर्वप्रभुता सम्पन्न, अपने में परिपूर्ण है, अखण्ड है, पूर्ण स्वतंत्र हैं।
यद्यपि प्रत्येक द्रव्य में अनेक प्रदेश हो सकते हैं, पर वह उनसे खण्डित नहीं होता। इसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य में अनन्त शक्तियाँ और उनकी अनन्तानन्त अवस्थाएँ भी होती हैं, पर उन शक्तियों और अवस्थाओं के कारण द्रव्य की अखण्डता खण्डित नहीं होती, प्रभु सम्पन्नता प्रभावित नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य की अखण्डता और प्रभु सम्पन्नता तभी प्रभावित होती है कि जब कोई अन्य द्रव्य उसकी
व्यवहारनय : भेद-प्रभेद सीमा में प्रवेश करे या उसकी अवस्थाओं में हस्तक्षेप करे । पर ऐसा तो होता नहीं है, क्योंकि जैसा कि ऊपर कह आए हैं कि प्रत्येक द्रव्य अपने में परिपूर्ण, अखण्ड और पूर्ण स्वतंत्र हैं।
प्रत्येक द्रव्य अपनी अखण्डता और एकता कायम रखकर समझनेसमझाने आदि की दृष्टि से गुण-गुणी, प्रदेश-प्रदेशवान, पर्यायपर्यायवान आदि से भेदा जाता है।
समझने-समझाने की दृष्टि से एकद्रव्य की मर्याया के भीतर किए गए गुणभेदादि भेद अतद्भाव रूप होते हैं और दो द्रव्यों के बीच जो विभाजन रेखा होती है, वह अत्यन्ताभावस्वरूप होती है, क्योंकि उन दोनों के सुख-दुःख, लाभ-हानि सम्मिलित नहीं होते। किन्तु एक द्रव्य के प्रदेशों, गुणों और पर्यायों के सुख-दुःख, लाभ-हानि सम्मिलित होते हैं; यही कारण है कि द्रव्य की मर्यादा के भीतर किए गए भेद वास्तविक नहीं हैं; पर हैं अवश्य ।
सद्भूत व्यवहारनय अखण्ड एक द्रव्य में भेद डालकर समझनेसमझाने का कार्य करता है और असद्भूतव्यवहारनय दो भिन्न द्रव्यों के बीच संबंध बताने का कार्य करता है।
अखण्ड द्रव्य में भेद शुद्ध गुण-गुणी या अशुद्ध गुण-गुणी के आधार पर किया जाता है। शुद्ध गुणगुणी को विषय बनाने वाले नय को शुद्ध सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं।
अशुद्ध गुणगुणी को विषय बताने वाले नय को अशुद्धसद्भूतव्यवहारनय कहते हैं। दो द्रव्यों के बीच जो संबंध बताया जाता है वह भी दो प्रकार का होता है - संश्लेष सहित और संश्लेष रहित ।'
१. परमभाव प्रकाशक नयचक्र पृष्ठ-१४३ २. वही, पृष्ठ-१४४ ३. वही, पृष्ठ-११८
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-११९ २. वही, पृष्ठ-११९ ३. स्वरूप अपेक्षा से जो द्रव्य हैं, वह गुण नहीं है और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है - यह
अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं है। ४. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-१२० ३. वही, पृष्ठ-१२२