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अध्यात्म के नय
संश्लेष सहित संबंध को विषय बनाने वाला नय अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय है। संश्लेष रहित संबंध को विषय बनाने वाला नय उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है।
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इसप्रकार व्यवहारनय एक द्रव्य की आन्तरिक संरचना के स्पष्टीकरण के लिए अभेद में भेद करता है, पर द्रव्य की आन्तरिक व्यवस्था में जितना बल अभेद पर दिया जाता है, उतना बल भेद पर नहीं । इसलिए अभेदग्राही निश्चयनय को भूतार्थ और सत्यार्थ कहकर उपादेय बताया जाता है और भेदग्राही व्यवहारनय को अभूतार्थ और असत्यार्थ कहकर हेय कहा जाता है; क्योंकि अभेदग्राही निश्चयनय द्रव्य की अखण्डता का पोषक होने से एकता को मजबूत करता है, अनेकता के विकल्पों का शमन करता है और आत्मानुभूति की प्राप्ति का साक्षात् हेतु करता है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विश्व की व्यवस्था को समझनेसमझाने के लिए व्यवहारनय के भेद-प्रभेद आवश्यक है, सार्थक है। उपनय - व्यवहार उपनय से उपजनित होता है। व्यवहारनय भेद का उत्पादक होने से, असद्भूत व्यवहारनय उपचार का उत्पादक होने से और उपचरित असद्भूत व्यवहारनय उपचार में भी उपचार का उत्पादक होने से उपनयजनित है।
एक प्रकार से व्यवहारनय ही उपनय हैं; क्योंकि उपनयों में जो भेद गिनाए गए हैं, वे सब एक प्रकार से व्यवहारनय के ही भेद-प्रभेद हैं। जैसा कि निम्न चार्ट से स्पष्ट है* -
उपनय (व्यवहारनय )
सद्भूतव्यवहारनय
असद्भूतव्यवहारनय
शुद्धं सद्भूतव्यवहारनय
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ १२० २. वही, पृष्ठ- १४४
उपचरित असद्भूतव्यवहारनय
अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय
३. वही, पृष्ठ-१४४
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असद्भूतव्यवहारनय
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प्रयोजन - व्यवहार में अटकने, भटकने और उलझने से बचने के लिए व्यवहारनय का स्वरूप जानना अनिवार्य है। यही इसका प्रयोजन है। हेयोपादेयता - व्यवहारनय ज्ञेयरूप में उपादेय है और श्रद्धेय और ध्येय रूप में हेय है अर्थात् व्यवहारनय जानने के लिए उपादेय है और श्रद्धा का और ध्यान का विषय न होने से हेय है। (१) असद्भूतव्यवहारनय
स्वरूप और विषय वस्तु जो नय संबंधों के आधार पर भिन्नभिन्न द्रव्यों में अभेदोपचार करके वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करता है, उसे असद्भूतव्यवहारनय कहते हैं।
इसका विषय असीमित है; क्योंकि इसका विषय विभिन्न द्रव्यों के बीच विभिन्न संबंधों के आधार पर एकत्व का उपचार करना है। एक तो द्रव्य अनन्तानन्त हैं और उनमें जिन संबंधों के आधार पर एकत्व या कर्तृत्वादि का उपचार किया जाता है, वे संबंध भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे कि वे संबंध एक ही जाति के हैं या भिन्न-भिन्न जाति के ? जो संबंध स्थापित किया जाता है, वह निकटवर्ती (संश्लेष सहित ) है या दूरवर्ती (संश्लेष रहित ) ? ज्ञाता ज्ञेय है या स्वस्वामी ? आदि अनेक विकल्प खड़े होते हैं । '
इन सभी बातों को ध्यान में रखकर द्रव्य, गुण, पर्याय के आधार पर इन उपचारों को निम्न नौ भागों में विभाजित किया जाता है।
एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का उपचार, एक पर्याय में दूसरी पर्याय का उपचार, एक गुण में दूसरे गुण का उपचार, द्रव्य में गुण का उपचार, द्रव्य में पर्याय का उपचार, गुण में द्रव्य का उपचार, गुण में पर्याय का उपचार; पर्याय में द्रव्य का उपचार और पर्याय में गुण का उपचार।
१. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ- १४२ २. वही, पृष्ठ १४२
३. वही, पृष्ठ ११२ ११३