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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार यह मिथ्यात्व का जोर भी कोई और नहीं है; अपने आत्मा का भावकलंक ही है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखा है ह्र
अत्थि अणंता जीवा, जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो । भावकलंकसुपउरा, णिगोदवासं ण मुंचति ।। ' निगोद में ऐसे अनंत जीव हैं, जिन्होंने अभीतक त्रसपर्याय की प्राप्ति नहीं की है। वे जीव अगृहीत मिथ्यात्वरूप प्रचुर भावकलंक के कारण ही निगोद के आवास को अनंतकाल तक नहीं छोड़ते ।
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पर के स्वामित्व और उसमें अपनी इच्छानुसार परिणमन करनेकराने के तीव्र परिणाम और उनकी अनुकूलता को भोगने के तीव्रतम परिणाम ही भावकलंक हैं, जिसके कारण यह जीव अनंतकाल तक निगोद में रहा है और अब सैनी पंचेन्द्रिय मनुष्य पर्याय में भी पर के स्वामित्व और कर्तृत्व के अहंकार-ममकार में मरा जा रहा है।
जब भी कोई प्रतिकूल प्रसंग आता है तो हम उसके कारण दूसरों में खोजने लगते हैं। अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व के जोर से हमारा ध्यान इस ओर जाता ही नहीं है कि इसमें कोई हमारी भी गलती हो सकती है।
जब कोई लड़का किसी लड़की को देखने जाता है तो वह कुछ ही क्षणों में इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि मुझे इससे शादी करनी है या नहीं ? यद्यपि इस निर्णय करने में उसे कुछ भी देर नहीं लगती; तथापि वह अपना निर्णय किसी को बताता नहीं है; गोल-मोल बातें ही करता रहता है और अन्त में कह देता है कि है तो सबकुछ ठीक, पर उत्तर तो मेरे माता-पिता ही देंगे।
आज के लड़के बहुत चतुर हो गये हैं। वे जानते हैं कि यदि मैंने अभी स्पष्ट कह दिया कि मुझे लड़की पसन्द नहीं है तो अभी का चाय-पानी भी संकट में पड़ जायेगा और यह कह दिया है कि मुझे तो लड़की बहुत पसन्द है तो पिताजी को सौदाबाजी करने का अवसर नहीं मिलेगा। १. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १९७
छठवाँ प्रवचन
अतः वह अपने मन की बात मन में ही रखता है और मीठी-मीठी बातें करके ऐसा संकेत देता है कि जैसे उसे लड़की बहुत पसन्द है ।
लड़कीवालों के पड़ौस में उस लड़के की जान पहिचान का एक परिवार रहता था। जब लड़का जाने लगा तो वह उनसे मिलने के लिए उनके घर गया। उनके यहाँ दस-पाँच मिनिट रुक कर अपने घर चला गया। लड़के के पिता से जब उत्तर मांगा गया तो उत्तर मिला कि अभी लड़के का विचार दो-चार वर्ष शादी करने का ही नहीं है।
अरे, भाई ! अभी शादी करने का विचार ही नहीं था तो फिर वह लड़की देखने आया ही क्यों ? व्यर्थ ही दूसरों को परेशान करने से क्या प्रयोजन है ?
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प्रयोजन तो कुछ भी नहीं है; पर लड़केवालों ने नापसंदगी व्यक्त किये बिना, मना करने का एक तरीका निकाल लिया है।
यह उत्तर सुनकर लड़कीवाले सोचने लगे कि लड़के को तो लड़की बहुत पसन्द थी; उसकी बातों से तो यही लगता था कि काम बन ही गया है, पर वह पड़ौसी के यहाँ गया था। लगता है उसने भड़का दिया है, हमारा काम बिगाड़ दिया है। हमने इसका क्या बिगाड़ा है, यह हमारे पीछे क्यों पड़ा है; कुछ समझ में नहीं आता। इसके रहते तो हमारी लड़की की शादी होना संभव ही नहीं है, अब हम करें तो करें क्या ?
यद्यपि लड़केवालों के इन्कार करने में पड़ौसी का रंचमात्र भी योगदान नहीं था; पर लड़कीवालों के दिमाग में तो यही जमा था कि उनके अहित में सदा पड़ौसियों का ही हाथ रहता है।
"हमारी लड़की या हममें भी कोई कमी हो सकती है" ह्न यह सोचने के लिए तो कोई तैयार ही नहीं है।
इसीप्रकार हम अपने सुख-दुःख के कारण अपने में खोजने के लिए तैयार ही नहीं हैं, पता चल जाने पर भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं; क्योंकि अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व के कारण हमारा यह तो पक्का निर्णय है ही कि हमारा बिगाड़-सुधार कोई न कोई परपदार्थ ही