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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ८६ इत्यादि जानना । तथा यह जीव जिसे मुख्यरूप से अनिष्ट मानता है, वह भी इष्ट होता देखते हैं। जैसे ह्र गाली अनिष्ट लगती है, परन्तु ससुराल में इष्ट लगती है । इत्यादि जानना । इसप्रकार पदार्थ में इष्ट-अनिष्टपना है नहीं। यदि पदार्थों में इष्टअनिष्टपना होता तो जो पदार्थ इष्ट होता, वह सभी को इष्ट ही होता और जो अनिष्ट होता, वह अनिष्ट ही होता; परन्तु ऐसा है नहीं । यह जीव कल्पना द्वारा उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानता है, सो यह कल्पना झूठी है । तथा पदार्थ सुखदायक ह्न उपकारी या दुःखदायक ह्न अनुपकारी होता है सो अपने आप नहीं होता, परन्तु पुण्य-पाप के उदयानुसार होता है । जिसके पुण्य का उदय होता है, उसको पदार्थों का संयोग सुखदायक उपकारी होता है और जिसके पाप का उदय होता है उसे पदार्थों का संयोग दुःखदायक - अनुपकारी होता है। ह्र ऐसा प्रत्यक्ष देखते हैं। किसी को स्त्री-पुत्रादिक सुखदायक हैं, किसी को दुःखदायक हैं; किसी को व्यापार करने से लाभ है, किसी को नुकसान है; किसी के शत्रु भी दास हो जाते हैं; किसी के पुत्र भी अहितकारी होता है। इसलिए जाना जाता है कि पदार्थ अपने आप इष्ट-अनिष्ट नहीं होते, परन्तु कर्मोदय के अनुसार प्रवर्तते हैं। जैसे किसी के नौकर अपने स्वामी के कहे अनुसार किसी पुरुष को इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो वह कुछ नौकरों का कर्तव्य नहीं है, उनके स्वामी का कर्तव्य है । कोई नौकरों को ही इष्ट-अनिष्ट माने तो झूठ है। उसीप्रकार कर्म के उदय से प्राप्त हुए पदार्थ कर्म के अनुसार जीव को इष्ट-अनिष्ट उत्पन्न करें तो वह कोई पदार्थों का कर्तव्य नहीं है, कर्म का कर्तव्य है। यदि पदार्थों को ही इष्ट-अनिष्ट माने तो झूठ है । इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि पदार्थों को इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष करना मिथ्या है। " १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- ८९-९० छठवाँ प्रवचन इस मिथ्या मान्यता को जड़मूल से उखाड़ फेंकने का एकमात्र उपाय वस्तुस्वरूप को समझकर प्रयोजनभूत तत्त्वों के बारे में सम्यक् निर्णय करना है। इस कार्य के लिए निरन्तर किये जानेवाले तत्त्वाभ्यास की परम आवश्यकता है। प्रत्येक द्रव्य की सत्ता पूर्णतः स्वतंत्र है। प्रत्येक द्रव्य अपनी परिणति से अभिन्न है, अपनी परिणति का स्वामी है, अपनी परिणति का कर्ताभोक्ता भी वही है; किसी अन्य द्रव्य का उसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं है। आत्मा भी एक द्रव्य है; अतः वह भी पूर्णतः स्वतंत्र सत्तावाला पदार्थ है। वह भी अपनी पर्याय से अभिन्न, उसका स्वामी और उसका कर्ताभोक्ता भी स्वयं ही है। किसी अन्य पदार्थ का उसके परिणमन में कुछ भी हस्तक्षेप नहीं है। वस्तुस्वरूप का ऐसा निर्णय ही तत्त्वनिर्णय है, तत्त्वविचार है; जो अगृहीत मिथ्यादर्शनादि से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है। उक्त विचार और तत्त्वनिर्णय के बल से जब यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई परपदार्थ हमारे लिए इष्ट या अनिष्ट है ही नहीं तो फिर राग-द्वेष करने का कोई आधार ही नहीं रहता, कारण ही नहीं रहता; अतः अनन्तानुबंधी राग-द्वेष आत्मानुभूति होते ही तत्काल नष्ट हो जाते हैं; शेष राग-द्वेष भी क्षीण होने लगते हैं। जब जड़ ही उखड़ गई तो फिर फल-फूल और पत्ते कबतक हरे-भरे रहेंगे; अब तो उन्हें मुरझाना ही है, उनके पास सूखकर गिर जाने के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं रहता है। परन्तु यह सब होता क्यों नहीं ? इसके उत्तर में पण्डितजी कहते हैं कि मिथ्यात्व के जोर से यह जीव इसतरह के विचार ही नहीं करता और पर में फेरफार करने के विकल्पों में ही उलझा रहता है; उन पर स्वामित्व, एकाधिपत्य जमाने के विचार में ही उलझा रहता है।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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