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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
'यह राग-द्वेष की परम्परा अगृहीत मिथ्यादृष्टियों में किस प्रकार प्रवर्तती है' ह्न इसे स्पष्ट करते हुए पण्डितजी लिखते हैं ह्र
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"प्रथम तो इस जीव को पर्याय में अहंबुद्धि है सो अपने को और शरीर को एक जानकर प्रवर्तता है। तथा इस शरीर में अपने को सुहा ऐसी इष्ट अवस्था होती है, उसमें राग करता है; अपने को न सुहाये ऐसी अनिष्ट अवस्था होती है, उसमें द्वेष करता है। तथा शरीर की इष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थों में तो राग करता है और उसके घातकों में द्वेष करता है । तथा शरीर की अनिष्ट अवस्था के कारणभूत बाह्य पदार्थों में तो द्वेष करता है और उनके घातकों में राग करता है।
तथा इनमें जिन बाह्य पदार्थों से राग करता है, उनके कारणभूत अन्य पदार्थों में राग करता है और उनके घातकों में द्वेष करता है। तथा जिन बाह्य पदार्थों से द्वेष करता है, उनके कारणभूत अन्य पदार्थों में द्वेष करता है और उनके घातकों में राग करता है। तथा इनमें भी जिनसे राग करता है, उनके कारण व घातक अन्य पदार्थों में राग-द्वेष करता है। तथा जिनसे द्वेष है, उनके कारण व घातक अन्य पदार्थों में द्वेष व राग करता है।
इसीप्रकार राग-द्वेष की परम्परा प्रवर्तती है।
तथा कितने ही बाह्य पदार्थ शरीर की अवस्था के कारण नहीं है, उनमें भी राग-द्वेष करता है। जैसे ह्न गाय आदि को बच्चों से कुछ शरीर का इष्ट नहीं होता, तथापि वहाँ राग करते हैं और कुत्ते आदि को बिल्ली आदि से कुछ शरीर का अनिष्ट नहीं होता, तथापि वहाँ द्वेष करते हैं।
तथा कितने ही वर्ण, गंध, शब्दादिक के अवलोकनादि से शरीर का इष्ट नहीं होता, तथापि उनमें राग करता है। कितने ही वर्णादिक के अवलोकनादिक से शरीर को अनिष्ट नहीं होता, तथापि उनमें द्वेष करता है । इसप्रकार भिन्न बाह्य पदार्थों में राग-द्वेष होता है।
तथा इनमें भी जिनसे राग करता है, उनके कारण और घातक अन्य
छठवाँ प्रवचन
पदार्थों में राग व द्वेष करता है। और जिनसे द्वेष करता है, उनके कारण और घातक अन्य पदार्थों में द्वेष व राग करता है।
इसीप्रकार यहाँ भी राग-द्वेष की परम्परा प्रवर्तती है। "
अगृहीत मिथ्यादृष्टियों में पाई जानेवाली यह राग-द्वेष की अनंत परम्परा सैनी पंचेन्द्रिय मनुष्यों पर घटित करके स्पष्ट की है; क्योंकि एकेन्द्रियादि के तो मन के अभाव में उपयोग इतना लम्बाना संभव ही नहीं होता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे अगृहीत मिथ्यादृष्टि नहीं हैं। अगृहीत मिथ्यादृष्टियों में तो वे हैं ही, पर उनकी कषायों की अनंतता केवलज्ञानगम्य है ।
अन्य पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना के संदर्भ में पण्डितजी लिखते हैंह्र “जो अपने को सुखदायक ह्न उपकारी हो उसे इष्ट कहते हैं; अपने को दुःखदायक ह्न अनुपकारी हो उसे अनिष्ट कहते हैं। लोक में सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के ही कर्त्ता हैं, कोई किसी को सुख-दुःखदायक, उपकारी अनुपकारी है नहीं। यह जीव ही अपने परिणामों में उन्हें सुखदायक ह्न उपकारी मानकर इष्ट जानता है अथवा दुःखदायक ह्र अनुपकारी जानकर अनिष्ट मानता है; क्योंकि एक ही पदार्थ किसी को इष्ट लगता है, किसी को अनिष्ट लगता है।
जैसे ह्र जिसे वस्त्र न मिलता हो, उसे मोटा वस्त्र इष्ट लगता है और जिसे पतला वस्त्र मिलता है, उसे वह अनिष्ट लगता है। सूकरादि को विष्टा इष्ट लगती है, देवादि को अनिष्ट लगती है। किसी को मेघवर्षा इष्ट लगती है, किसी को अनिष्ट लगती है ह्र इसीप्रकार अन्य जानना ।
तथा इसीप्रकार एक जीव को भी एक ही पदार्थ किसी काल में इष्ट लगता है, किसी काल में अनिष्ट लगता है। तथा यह जीव जिसे मुख्यरूप से इष्ट मानता है, वह भी अनिष्ट होता देखा जाता है ह्न इत्यादि जानना ।
जैसे ह्न शरीर इष्ट हैं, परन्तु रोगादि सहित हो, तब अनिष्ट हो जाता है; पुत्रादिक इष्ट हैं, परन्तु कारण मिलने पर अनिष्ट होते देखे जाते हैं ह्र