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मोक्षमार्गप्रकाशक का सार
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करता है। बस खोजना तो यह है कि वह कौन है ? सो जब कुछ पता नहीं चलता तो हम अपनी कल्पना से किसी न किसी पर के माथे मढ़ देते हैं।
मैं यह गारंटी तो नहीं दे सकता कि पड़ौसी पूरी तरह निर्दोष है, उसने कुछ भी नहीं कहा होगा; क्योंकि भारत में ऐसे पड़ौसियों की कमी नहीं है। कि जो अकारण ही दूसरों के काम बिगाड़ने की सोचते रहते हैं; पर यह गारंटी अवश्य देना चाहता हूँ कि उस लड़के के भड़कने में पड़ौसी का कोई योगदान नहीं है; क्योंकि जिस लड़के को जो लड़की पसन्द आ जाती है तो वह किसी के भी भड़काने में नहीं भड़कता, समझाने से नहीं समझता, यहाँ तक माँ-बाप आदि गुरुजनों की भी नहीं सुनता, सम्पूर्ण सम्पत्ति से बेदखल कर देने की धमकी से भी नहीं डरता, माँ की अश्रुधारा से भी नहीं पिघलता । ऐसे अनेक उदाहरण पौराणिक कथानकों में और इतिहास के पन्नों में तो मिल ही जाते हैं; पर आज के भारत में तो गलीगली में मिल जायेंगे।
पड़ौसी ने कुछ नहीं किया है, यदि किया भी हो तो उसके करने से कुछ नहीं हुआ है; असल बात तो यह है कि लड़का ही लड़की पर नहीं रींझ पाया । पर हमारी यह बात कौन मानता है; क्योंकि सभी लोग अपनी असफलता को किसी दूसरे के नाम पर ही मढ़ना चाहते हैं।
इसीप्रकार हमारे सुख-दुःख के कारण हममें ही विद्यमान हैं, कोई किसी को सुखी - दुःखी नहीं करता। न तो हमें किसी से डरने की जरूरत है और न किसी से सुख की भीख मांगनी है; पर अनादिकालीन मिथ्या मान्यता के जोर में कौन सुनता है हमारी बात ।
अनादिकालीन मिथ्या मान्यता का जोर ही मिथ्यात्व का जोर है; जिसके कारण हम अपने सुख-दुःख के कारण दूसरों में ही खोजते हैं और निरन्तर अनंत आकुलता का उपभोग करते रहते हैं।
पण्डित टोडरमलजी कहते हैं कि जबतक तुम इस परम सत्य को नहीं समझोगे कि कोई किसी के जीवन-मरण और सुख-दुःख का कर्ता
छठवाँ प्रवचन
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भोक्ता नहीं है, कोई किसी का स्वामी नहीं है और कोई किसीरूप कभी होता नहीं है; सभी पदार्थ स्वयंरूप हैं, स्वयं के स्वामी और कर्त्ता भोक्ता हैं; तबतक सुखी होना संभव नहीं है और यह बात माने बिना राग-द्वेष की परम्परा भी नहीं टूट सकती।
पर में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि ही अगृहीत मिथ्यादर्शन है, अगृहीत मिथ्याज्ञान है और इन मिथ्यादर्शन-ज्ञानपूर्वक रागद्वेष की प्रवृत्ति ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है, जो सर्वथा त्याज्य है।
हमारे चित्त में जो बातें बैठ जाती हैं, सो बैठ जाती हैं। हम उसके विरुद्ध सोच भी नहीं सकते, हमारी बुद्धि निरन्तर उसी का अनुसरण करती है।
सामान्य जनों के हृदय में एक बात बैठ गई है या बैठा दी गई है कि दुकानदार बनिये एक नंबर के ठग होते हैं। वे किसी को भी नहीं छोड़ते।
एक दुकानदार से एक किसान ने एक रुपये की सौंफ खरीदी। भाग्य से उस सौंफ में एक रुपया नगद भी आ गया। अब किसान सोचने लगा कि आज तो बनिया ठगा गया; क्योंकि रुपया तो वापिस आ ही गया, सौंफ मुफ्त में आ गई । वह सोच-सोचकर प्रसन्न हो रहा था कि अचानक उसके चित्त में एक प्रश्न खड़ा हुआ कि बनिया तो ठग होता है, वह तो सभी को ठगता है, वह कैसे ठगाया जा सकता है। इसमें भी कोई चाल होगी; पर बहुत सोचने पर वह चाल उसकी समझ में नहीं आई तो गुरुजी के पास पहुँचा।
गुरुजी को सारी बात बताई तो गुरुजी सोच में पड़ गये कि ऐसा कैसे हो सकता है कि बनिया ठगाया जाय ? वह तो ठगनेवाला है। बहुत कुछ सोचने के बाद जब कुछ समझ में नहीं आया तो वे गंभीर हो गये। वैसे तो समझने जैसी भी कोई बात थी नहीं। सौंफ की बोरी में एक रुपये का सिक्का गिर गया होगा। वह सौंफ के साथ तुलकर आ गया था; पर ऐसा मानने पर तो वह अकाट्य सिद्धान्त खण्डित होता था कि बनिया ठग होते हैं । अत: वे भी चिन्तित हो उठे कि कुछ दाल में काला अवश्य है; क्योंकि वे यह तो मान ही नहीं सकते थे कि बनिया भी ठगाया जा सकता है।