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________________ १७८ जिनधर्म-विवेचन २. प्रत्येक वस्तु का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव भिन्न-भिन्न ही होने से एक वस्तु का अन्य वस्तु से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य पूर्णरूपेण स्वतन्त्र ही है- ऐसा वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है। यह भेदज्ञान ही मोक्षमार्ग को प्रगट करने का एकमात्र उपाय है। ३. एक द्रव्य, अन्य द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता अर्थात् जीवद्रव्य कभी पुद्गलादि अन्य द्रव्यरूप नहीं हो सकता। ४. जीव और पुद्गलादि अन्य द्रव्यों की भी अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। जीवद्रव्य, सदैव जीवद्रव्यरूप और पुद्गलादि, सदैव पुद्गलादिरूप ही रहते हैं। जैसे - पुद्गलरूप शरीर कभी भी जीवरूप नहीं हो सकता; इसीप्रकार टी.वी., टेप-रिकार्डर, रेडियो, सीडी-प्लेयर, मोबाईल आदि पुद्गल कभी जीव नहीं हो सकते। राम का जीव. उसके स्वरूप में ही रहेगा, लक्ष्मण का जीव उसके अपने स्वरूप में ही रहेगा। किसी में भी इस स्वतन्त्र परिणमन में परिवर्तन करने की शक्ति नहीं है; अतः कर्ताबुद्धि का सहज ही नाश हो जाता है। ५. प्रत्येक गुण का परिणमन भिन्न-भिन्न और स्वतन्त्र होता है; अतः एक ही द्रव्य में रहनेवाले एक गुण की पर्याय, उसी द्रव्य में रहनेवाले अन्य गुण की पर्याय से कथंचित् स्वतन्त्र है - ऐसा निर्णय होता है। ६. श्रद्धागुण की पर्याय क्षायिक सम्यक्त्वरूप सिद्ध भगवान की सम्यक्त्व पर्याय के समान पूर्ण निर्मल होने पर भी साधक के ज्ञान और चारित्रगुण की पर्यायें अपूर्ण और अविकसित रहती हैं। ७. पर्यायों का परिणमन स्वतन्त्र और निरपेक्ष होने के कारण ही श्रावक और साधु के भिन्न-भिन्न अनेक गुणस्थान होते हैं - यह विषय अगुरुलघुत्वगुण से स्पष्ट समझ में आता है। ८. श्रद्धा की पर्याय चौथे गुणस्थान में, ज्ञानगुण की पर्याय तेरहवें गुणस्थान में एवं चारित्र की यथाख्यातरूप पर्याय बारहवें गुणस्थान में एवं सिद्धावस्था में पूर्ण निर्मल होती है; ऐसा पक्का ज्ञान हो जाता है। ९. भावलिंगी मुनिराज भूमिका के योग्य क्रोधादि कषायरूप परिणमित होते हुए भी उनका भावलिंगीपना सुरक्षित रहता है। इसीप्रकार व्रती अगुरुलघुत्वगुण-विवेचन १७९ श्रावक पूजादि शुभकार्य और अव्रती-श्रावक, युद्धादि अशुभकार्य रूप परिणमित होते हुए भी उनका साधकपना बना रह सकता है - यह विषय समझ में आता है। १०. द्रव्य और गुणों का, द्रव्य-क्षेत्र-काल एक ही होने से द्रव्य में से गुण बिखरकर अलग-अलग नहीं होते। जैसे - बोरे में भरे हुए गेहूँ बिखरकर अलग हो जाते हैं; वैसे जीवद्रव्य में से ज्ञानादि गुण तथा पुद्गलद्रव्य में से स्पर्श आदि गुण बिखरकर अलग-अलग नहीं होते हैं। ११. जीव-पुद्गलादि द्रव्यों में ज्ञानादि या स्पर्शादि गुण जितने और जैसे हैं, वे उतने और वैसे ही बने रहते हैं; न हीनाधिक होते हैं और न उनका अभाव होता है। २०९. प्रश्न -तदभव मोक्षगामी भगवान रामचन्द्र अपनी पत्नी सीता के वियोग में इतने शोक-विह्वल थे कि वह पेड़-पौधों से भी सीताजी के सम्बन्ध में पूँछते थे तथा भाई लक्ष्मण के शव/मुर्दे को अपने कन्धे पर छह माह तक ढोते एवं रोते फिरे थे; वहाँ हमें यहाँ क्या समझना चाहिए? उत्तर - श्रद्धागुण की क्षायिक सम्यक्त्वरूप पर्याय तो प्रभु रामचन्द्र के जीवन में व्यक्त/प्रगट थी, किन्तु चारित्रगुण की पर्याय सम्यक् (सम्यक्त्वाचरणरूप) होने पर भी चारित्र में अपेक्षाकृत विकास नहीं हुआ था, चारित्र में कमजोरी थी - ऐसा समझना चाहिए। चक्रवर्ती, कामदेव एवं तीर्थंकर - इन तीन-तीन पदवी के धारक शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ, अपने वर्तमान भव का उज्ज्वल भविष्य जानते हुए भी छह खण्ड के अधिपति एवं ९६ हजार रानियों के पति बने थे। इससे सिद्ध होता है कि श्रद्धागुण की निर्मल पर्याय, चारित्रगुण के परिणमन में किंचित् भी जबरदस्ती नहीं कर पाती। यदि हमें कभी किसी सम्यग्दृष्टि के जीवन में अपेक्षाकृत चारित्र का विकास देखने में न आवे तो हमें अगुरुलघुत्वगुण का सार - एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता, एक गुण दूसरे गुण का कार्य नहीं करता - इस तात्त्विक विषय पर विचार कर, वस्तु-स्थिति समझ लेना चाहिए। इसप्रकार 'अगुरुलघुत्वगुण' का १७ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है। (90)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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