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________________ प्रदेशत्वगुण-विवेचन || मङ्गलाचरण ।। प्रदेशत्वगुण की शक्ति से, आकार द्रव्य धरा करें; निजक्षेत्र में व्यापक रहें, आकार भी पलटा करें। आकार हैं सब के अलग, हों लीन अपने ज्ञान में; जानो इन्हें सामान्यगुण, रक्खो सदा श्रद्धान में। द्रव्य में रहनेवाले प्रदेशत्वगुण के कारण प्रत्येक द्रव्य को अपनाअपना स्वतन्त्र आकार प्राप्त होता है अर्थात् प्रदेशत्वगुण से ही द्रव्य अपने आकार को धारण करता है। प्रदेशत्वगुण से ही द्रव्य अपने योग्य आकाशक्षेत्र को व्यापता है, घेरता है; इसलिए द्रव्य अपना आकार ग्रहण करने में स्वाधीन है। प्रत्येक द्रव्य का आकार भिन्न-भिन्न है - ऐसा जानकर हे जीव! अपने ज्ञानस्वभाव में डूब जाओ, मग्न हो जाओ, लीन हो जाओ। २१०. प्रश्न - आचार्यों ने शास्त्रों में प्रदेशत्वगुण का वर्णन क्यों किया है? उत्तर - अज्ञानी जीव शरीर एवं अन्य पुद्गलों के अनुकूल आकारों से राग और प्रतिकूल आकारों से द्वेष दिन-रात करता रहता है और व्यर्थ ही दुःखी होता है। सभी द्रव्यों का अपना-अपना आकार तो मात्र उनकी द्रव्यगत योग्यता से प्रदेशत्वगुण के कारण ही होता है। आकार-सम्बन्धी अज्ञानी के सभी विकल्प व्यर्थ तो होते ही हैं साथ ही दुःखदायक भी होते हैं। कोई जीव ज्ञानी हो या अज्ञानी, वह किसी भी द्रव्य को अपनी इच्छा के अनुसार आकार तो दे ही नहीं सकता। इस वास्तविक वस्तु-व्यवस्था का ज्ञान कराने के लिए ही आचार्यों ने शास्त्रों में प्रदेशत्वगुण का वर्णन किया है। २११. प्रश्न - प्रदेशत्वगुण का कथन, छह सामान्य गुणों में सबसे अन्त में क्यों किया है? उत्तर - १. गुणों का समूह न हो तो द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं प्रदेशत्वगुण-विवेचन हो सकती। २. गुणों की समूहरूप सत्ता किसी न किसी आधार/आश्रय के बिना टिक नहीं सकती। ३. आधार/आश्रय प्रदेशवान वस्तु का ही होता है। ४. अतः प्रदेशत्वगुण का कथन सबसे अन्त में किया गया है। २१२. प्रश्न - प्रदेशत्वगुण किसे कहते हैं? उत्तर - जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है; उसे प्रदेशत्वगुण कहते हैं। २१३. प्रश्न - क्या प्रदेशत्वगुण का कथन अन्य शास्त्रों में भी आया है? यदि हाँ, तो बताने का कष्ट करें। उत्तर - १. आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार शास्त्र की गाथा ३५३६ में छह द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या बताई है। वे कहते हैं - "मूर्त (पुद्गल) द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। धर्म, अधर्म तथा एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं। लोकाकाश के, धर्म, अधर्म तथा एक जीव की भाँति असंख्यात प्रदेश होते हैं। शेष अलोकाकाश और सम्पूर्ण आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। काल को कायवानपने का अभाव है; क्योंकि वह एकप्रदेशी है।" २१४. शंका - यहाँ तो प्रदेशत्वगुण के कारण द्रव्य के आकार की बात चल रही है और आप तो छह द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या की चर्चा कर रहे हो? कुछ बात समझ में नहीं आ रही है। समाधान - इसमें समझ में न आने की बात क्या है? देखो, १. द्रव्य का आकार तो प्रदेशों के कारण ही बनता है; इसलिए यहाँ द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या बताई जा रही है। २. आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अध्याय के सूत्र ८११ में भी छह द्रव्यों की प्रदेशों की संख्या बताई है, जो क्रम से इसप्रकार है - "धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात प्रदेश हैं। आकाश के अनन्त प्रदेश हैं। पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं। परमाणु के प्रदेश नहीं हैं अर्थात् उसका एक प्रदेश है।" (91)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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