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जिनधर्म-विवेचन
उत्तर - वास्तव में देखा जाए तो परमाणु में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष - ये स्पर्शगुण की चार ही पर्यायें होती हैं; उस समय हल्का, भारी, कोमल, कठोर - ये स्पर्शगुण की चार पर्यायें नहीं होती हैं; ये तो स्कन्ध अवस्था में व्यक्त होनेवाले सापेक्ष धर्म हैं। लेकिन गुण न तो कभी बढ़ते हैं। और न कभी घटते हैं। अरे! केवली भगवान द्वारा कथित व्यवस्था में कहीं विरोध आने की बात ही नहीं है।
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२०४. प्रश्न ज्ञानगुण में केवलज्ञानरूप परिणमन कहाँ और कब होता है?
उत्तर - श्रद्धागुण का पूर्ण निर्मल क्षायिक सम्यक्त्वरूप परिणमन चौथे, पाँचवें, छठवें एवं सातवें गुणस्थान में से किसी भी एक गुणस्थान में हो सकता है। ज्ञानगुण के परिणमन में सम्यक्पना सम्यक्त्व होते ही उसके साथ उत्पन्न हो जाता है। पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला की चौथी ढाल के दूसरे छन्द में कहा भी है- सम्यक् साथै ज्ञान होय। लेकिन ज्ञान का पूर्ण निर्मल परिणमन मात्र तेरहवें गुणस्थान में ही होता है, इसके पहले नहीं । ज्ञान का पूर्ण निर्मल परिणमन ही केवलज्ञान कहलाता है।
२०५. प्रश्न ज्ञानगुण के केवलज्ञानरूप पूर्ण निर्मल परिणमन का क्रम कैसा है ? श्रद्धागुण के समान है अथवा चारित्रगुण के परिणमन के समान ?
उत्तर - चारित्रगुण के पूर्ण निर्मल परिणमन के क्रम से केवलज्ञान की प्राप्ति का क्रम अलग है। चारित्रगुण में विकास तो गुणस्थान के क्रमानुसार आगे-आगे वृद्धिंगत होता है। चौथे गुणस्थान से चारित्र में सम्यक्पना और सम्यकत्वाचरण चारित्र प्रगट होता है और उसके आगे व्रतादिक के रूप में पाँचवें, छठवें सातवें आदि गुणस्थानों में सम्यक्चारित्र का विकास क्रमशः बढ़ते-बढ़ते सिद्धावस्था में पूर्णता को प्राप्त हो जाता है।
ज्ञान में सम्यक्पना तो चौथे गुणस्थान में होता है। उसके पश्चात् पाँचवें आदि गुणस्थानों में ज्ञान की पर्याय में विकास आवश्यक नहीं है; होना हो तो हो और न होना हो तो न हो। ज्ञान की अवस्था, बारहवें गुणस्थानपर्यंत सामान्यतया आवश्यकरूप में सम्यक् मति श्रुतज्ञानरूप ही रहती है, तेरहवें
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अगुरुलघुत्वगुण- विवेचन
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गुणस्थान के प्रथम समय में ही क्षायोपशमिक पूर्ण श्रुत ज्ञानपर्याय का व्यय होकर पूर्णज्ञानरूप केवलज्ञानपर्याय का उत्पाद हो जाता है।
किसी-किसी साधक मुनिराज को मति श्रुत और अवधिज्ञानरूप अवस्था बारहवें गुणस्थान के पहले व्यक्त हो सकती है अथवा मतिश्रुत-अवधि और मन:पर्ययज्ञानरूप चारों ज्ञानों का विकास भी हो सकता है; किन्तु अनेक मुनिवरों के ऐसे भी हो सकता है, जिन्हें उक्त ज्ञानों का विकास हुए बिना ही सिर्फ मति श्रुतज्ञानपूर्वक केवलज्ञानरूप विकसित ज्ञानपर्याय की प्राप्ति भी हो सकती है।
२०६. प्रश्न - सुखगुण की पर्याय का विकास-क्रम कैसा है ? उत्तर - सुखगुण की पर्याय का विकास-क्रम, चारित्रगुण के परिणमन के साथ जुड़ा हुआ है। चारित्रगुण में जितनी जितनी वीतरागता बढ़ती जाती है, उसी क्रम से सुखगुण की पर्याय में भी अतीन्द्रिय आनन्द की वृद्धि होती जाती है।
२०७. प्रश्न आपने मात्र श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और सुख गुण का ही विकास-क्रम बतलाया है, अन्य गुणों का विकास-क्रम भी बताइए न ?
उत्तर - बन्धुवर! हमारा प्रयोजन तो मात्र मोक्षमार्ग से है। वह मोक्षमार्ग भी हमें शाश्वत सुख के लिए ही चाहिए। अतएव हमने श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र और सुख - इन चारों गुण का ही विकास-क्रम समझाया है। जीवद्रव्य में तो अनन्त गुण हैं और उन सबका भी अपना-अपना विकास-क्रम सम्भव है, किन्तु उनसे हमारा कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होता नहीं है; अतः उनका विकास-क्रम आचार्यों ने भी नहीं समझाया है। २०८. प्रश्न - अगुरुलघुत्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ
होते हैं?
उत्तर - अगुरुलघुत्वगुण को जानने से हमें अनेक लाभ होते हैं; जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है -
१. विश्व का प्रत्येक द्रव्य, प्रत्येक द्रव्य का प्रत्येक गुण और प्रत्येक गुण की प्रत्येक पर्याय अपनी-अपनी अपेक्षा से सत्, अहेतुक एवं निरपेक्ष है; इसप्रकार वस्तु-व्यवस्था का स्पष्ट और पक्का निर्णय होता है।