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जिनधर्म-विवेचन अनावश्यक हो जाएँगी। क्योंकि मिथ्यात्व का अभाव होने पर सम्यक्त्व के साथ ही सिद्धावस्था हमने मान ली है; क्योंकि श्रद्धागुण की निर्मलपर्याय क्षायिक सम्यक्त्वरूप होने के पश्चात् ही चारित्र की निर्मलपर्याय में विकास, क्रम-क्रम से मानने पर ही सर्व गुणस्थान एवं श्रावक-साधु की सर्व अवस्थाएँ सम्भव हैं, अतः जिनवाणी भी चारित्र में क्रमिक विकास की पोषक है।
६. प्रथमानुयोग भी सिद्ध नहीं होता है; क्योंकि प्रथमानुयोग में सम्यक्त्व-प्राप्ति के पश्चात् विशेष पुण्य के कारण स्वर्ग, भोगभूमि, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि पदों की प्राप्ति बताई है; किन्तु सम्यक्त्व के साथ ही सिद्धावस्था मानने पर भोगभूमि, चक्रवर्ती, नारायण-प्रतिनारायण, बलभद्र, तीर्थंकर आदि पदों का स्थान ही नहीं बनता है।
७. द्रव्यानुयोग भी सिद्ध नहीं होता है; क्योंकि श्रद्धागुण के सम्यक्त्वरूप परिणमन के साथ ही चारित्रगुण का पूर्ण निर्मल परिणमन मान लिया है, जो द्रव्यानुयोग को मान्य नहीं है। ___इसप्रकार एक गुण, अन्य गुणरूप परिणमन नहीं करता - यह स्वीकार करने में ही आत्मकल्याण निहित है। सम्यक्त्व होने के बाद चारित्रगुण का यथार्थ परिणमन क्रम-क्रम से धीरे-धीरे अथवा जल्दी-जल्दी बढ़ते हुए साधक महापुरुष, सिद्धावस्था को प्राप्त करता है, जो आगम एवं वस्तुस्वरूप को मान्य है।
२०१. शंका - यदि अगुरुलघुत्वगुण नहीं मानते हैं तो अरहन्त अवस्था रहेगी या नहीं रहेगी? कृपया इसका खुलासा कीजिए।
समाधान - यदि आप सम्यक्त्व होते ही सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति मानोगे तो मिथ्यात्व छोड़ने के बाद जब एक भी गुणस्थान नहीं रहेगा तो तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होनेवाली अरहन्त अवस्था कैसे रहेगी? नहीं रह सकती; क्योंकि हमने सम्यक्त्व होते ही सिद्ध अवस्था मान ली है; अतः ऐसा मानना मिथ्या/असत्य है।
अगुरुलघुत्वगुण-विवेचन
१७५ २०२. शंका - तो क्या फिर दिव्यध्वनि के द्वारा उपदेश सुनने की जो पात्रता है अर्थात् देशनालब्धि की पात्रता का भी क्या अभाव मानना अनिवार्य हो जाएगा?
समाधान - भाई! घबराओ मत । यदि चारित्र में क्रम-क्रम से विकास नहीं मानोगे तो कैसी-कैसी विपरीतता आएगी - इसका ज्ञान हम करा रहे हैं। देशना का अर्थ होता है उपदेश और 'लब्धि' का अर्थ होता है प्राप्ति अर्थात् उपदेश की प्राप्ति को देशनालब्धि कहते हैं।
पंच परमेष्ठियों में सबसे प्रमुख अरहन्त भगवान इच्छारहित एवं सर्वज्ञ हैं, उनकी दिव्यध्वनि सहज अर्थात् इच्छारहित निकलती है; अतः उनकी देशना तो सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज तो श्रेणी पर आरूढ़ होने से ध्यानमग्न रहते हैं, वे उपदेश का कार्य नहीं करते। इसी प्रकार सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज भी शुद्धोपयोगी होने से ध्यानमग्न ही रहते हैं। लेकिन उपदेश देने का कार्य शुभोपयोग के काल में ही हो सकता है; अतः साधु अवस्था में मात्र प्रमत्तविरत मुनिराज ही उपदेश देते हैं, अन्य मुनिराज नहीं।
प्रमत्तविरत मुनिराज, देशविरत श्रावक और चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यक्त्वी - ये तीनों ही साधक अवस्थावाले हैं, देशना देने के लिए अधिकारी हैं, देशना देने के योग्य हैं। लेकिन ये तीनों नियम से अल्पज्ञ होते हैं; इच्छासहित तो हैं ही। __ इसतरह तेरहवें और चौथे से छठे गुणस्थानवी जीवों के निमित्त से भी देशना की प्राप्ति पात्र जीवों को भूतकाल में मिली थी, वर्तमानकाल में भी मिल रही है और भविष्य में भी मिलती रहेगी; अतः सम्यक्चारित्र की पर्याय में क्रम-क्रम से विकास मानना ही राजमार्ग है, उसे हमें अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
२०३. प्रश्न - परमाणुरूप पुद्गल में चार प्रकार का स्पर्श होता है; किन्तु परमाणु जब अन्य परमाणुओं के साथ मिलकर स्कन्धरूप हो जाता है तो आठ प्रकार का स्पर्श हो जाता है; ऐसा क्यों?
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