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जिनधर्म-विवेचन आवश्यक नहीं होता है। यहाँ श्रद्धागुण की निर्मलता ने चारित्रगुण के विकास में कुछ भी हस्तक्षेप नहीं किया है- यह समझना आवश्यक है। श्रद्धागुण के परिणमन की यह विशेषता होती है कि वह जब भी मिथ्यात्व से सम्यक्त्वरूप या सम्यक्त्व से मिथ्यात्वरूप परिणमित होती है, उसमें परिवर्तन की प्रक्रिया शीघ्र ही पूर्ण हो जाती है। वह क्रम-क्रम से परिणमन करते हुए धीरे-धीरे सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्वरूप नहीं होती। पहले समय में जो परिणमन मिथ्यात्वरूप है, वही बदलकर दूसरे समय में सम्यक्त्वरूप होता है। श्रद्धा के किसी भी परिणमन में क्रमशः धीरे-धीरे विकास करते हुए पूर्ण / शुद्ध होने का क्रम नहीं है ।
चारित्रगुण के निर्मल परिणमन की स्वतन्त्रता ही कुछ अलग पद्धति की है। श्रद्धा सम्यक्रूप होते ही चारित्र भी उसी समय सम्यक् / यथार्थ होता है, यह बात तो सत्य है; पर चारित्र के परिणमन में सम्यक्पना होते ही तत्काल पूर्ण निर्मलता नहीं आती है । चारित्र के पूर्ण और निर्मल परिणमन के लिए विशिष्ट काल एवं क्रम अपेक्षित है।
इस कारण से ही प्रथम तो चारित्रगुण का परिणमन चौथे गुणस्थान में सम्यक्रूप होता है; फिर उस जीव को पंचम गुणस्थान प्राप्त होकर तो चारित्र एकदेश विकसित होता है; इसके पश्चात् प्रमत्त- अप्रमत्तरूप विशिष्ट चारित्र को मुनिराज प्रगट करते हैं; फिर अपूर्वकरण आदि उपरिम गुणस्थानों में चारित्र और भी क्रम-क्रम से अधिक अधिक विकसित होता हुआ यथाख्यातरूप होता है।
क्षीणमोही यथाख्यात क्षायिकचारित्ररूप अवस्था में अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत होने के पश्चात् केवलज्ञान के साथ वह क्षायिकचारित्र, परमयथाख्यातरूप परिणममित होता है। इसके पश्चात् सिद्ध अवस्था में वह क्षायिक चारित्र, परिपूर्ण होकर वैसा ही वास्तविक और निर्मल सदाकाल बना रहता है।
इसप्रकार ‘एक गुण, दूसरे गुणरूप नहीं होता' - यह नियम, श्रद्धागुण और चारित्रगुण के स्वतन्त्र परिणमन से समझ में आता है।
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अगुरुलघुत्वगुण - विवेचन
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(३) द्रव्य में रहनेवाले अनन्त गुण बिखर कर अलग-अलग नहीं होते - इस बिन्दु को नहीं मानने से अनेक आपत्तियाँ सामने आती हैं। यदि किसी एक द्रव्य में से एक या दो गुण बिखरकर, अलग-अलग हो सकते हैं तो उस द्रव्य में रहनेवाले सभी अनन्त गुण बिखरकर, अलग-अलग क्यों नहीं हो सकते? लेकिन यदि द्रव्य के सभी गुण बिखरकर अलग हो जावें तो उस द्रव्य का अस्तित्व ही नष्ट हो जाए। यदि निकले हुए वे गुण जिन-जिन द्रव्यों में जाकर मिलेंगे, वे द्रव्य बड़े हो जाएँगे। इसतरह सम्पूर्ण वस्तुव्यवस्था ही नष्ट हो जाएगी, जो कभी सम्भव नहीं है।
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२००. प्रश्न - अगुरुलघुत्वगुण को न मानने से होनेवाली हानियों के दूसरे बिन्दु को और विस्तार से स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर- श्रद्धागुण का सम्यक्त्वरूप या क्षायिक सम्यक्त्वरूप परिणमन होते ही यदि चारित्रगुण के परिणमन में भी पूर्णता मानी जाए तो तत्काल सिद्धावस्था की प्राप्ति का प्रसंग आता है ऐसा मानने पर अनेक आपत्तियाँ सामने आकर खड़ी होती हैं। जैसे -
१. चरणानुयोग की व्यवस्था ही नष्ट हो जाती है, जिससे छठेसातवें गुणस्थानवर्ती आचार्य, उपाध्याय और साधु भी नहीं रहते हैं, फिर उनको आहार देनेरूप कार्य भी नहीं रहता है तो श्रावक संस्था भी नष्ट हो जाती है। क्योंकि न तो आहार देना सिद्ध होती है और न आहार लेना ।
२. आहार देनेवाले पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक नहीं माने जाएँ तो अणुव्रत, गुणव्रत- शिक्षाव्रत कहाँ एवं कैसे संभव हैं? क्योंकि ये सब व्रत साधकदशा में ही होते हैं। यदि सम्यक्त्व होते ही सिद्धावस्था मान लें तो साधक की अव्रती व्रती और देशव्रती महाव्रती आदि अवस्थाएँ कैसे हो सकती हैं?
३. चौथा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान भी नहीं रहता है।
४. मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही मानना होगा ।
५. इसीप्रकार न श्रेणी सम्भव होगी और न श्रेणी के गुणस्थान । करणानुयोग का बहुभाग, जिसमें गुणस्थानों की परिभाषाएँ लिखी हैं, वे