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________________ १५० जिनधर्म-विवेचन ६. आचार्य देवसेन ने आलापपद्धति ग्रन्थ के गुण-व्युत्पत्ति अधिकार के सूत्र ९६ में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में बताया है - "द्रव्य का जो भाव, उसे द्रव्यत्व कहते हैं। जो अपने-अपने प्रदेशसमूह के साथ अपनीअपनी स्वभाव-विभावपर्यायों के प्रति अन्वयरूप से द्रवण या गमन करता है, भविष्य में सदा गमन करेगा तथा भूतकाल में गमन करते हुए आया है; उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य, त्रिकाल अवस्थायी होते हुए भी प्रतिसमय परिणमनशील हैं।" १६९. प्रश्न - द्रव्यत्वगुण के कारण वस्तु को क्या कहते हैं? उत्तर - द्रव्यत्वगुण के कारण वस्तु को 'द्रव्य' कहते हैं। १७०. प्रश्न - द्रव्यत्वगुण को नहीं मानने से क्या हानि है? उत्तर - द्रव्यत्वगुण को न मानने से द्रव्य के सर्वथा कूटस्थ/नित्य होने का प्रसंग आता है। १७१. प्रश्न - द्रव्यत्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ हैं? उत्तर - सांख्यदर्शन नाम का एक मत है; उसके अनुसार द्रव्य सदा कूटस्थ है, नित्य ही है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता। देश-विदेश में रहनेवाले बुद्धअनुयायियों का बौद्धमत है; उनके अनुसार द्रव्य मात्र क्षणध्वंसी है, वह कभी नित्य हो ही नहीं सकता। इसप्रकार सांख्य और बौद्धमत में परस्पर अत्यन्त विरोध है। १. इनके विरोध (सर्वथा क्षणिक एवं नित्य एकान्त) को मिटानेवाला जिनधर्म अर्थात् जैनदर्शन है। जिनेन्द्र भगवान का मत है कि द्रव्य तो नित्यानित्यात्मक है। १७२. शंका - जैनदर्शन ने सांख्य तथा बौद्ध, दोनों मतों का मात्र समन्वय का कार्य किया है, केवल उन्हें मिलाकर अपनी बद्धिमानी बताई है; इसमें जैनदर्शन का स्वतंत्र मत कहाँ रहा? समाधान - नहीं भाई! ऐसा नहीं है। जैनदर्शन का मत अर्थात् अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों का मत; क्योंकि सर्वज्ञ भगवन्तों के ज्ञान में वस्तु द्रव्यत्वगुण-विवेचन का जैसा स्वरूप ज्ञात हुआ है, वैसा ही वास्तव में वस्तुस्वरूप है और उन्होंने दिव्यध्वनि के माध्यम से वैसा ही बताया है। उस दिव्यध्वनि के अनुसार ही आचार्यों ने वस्तु-स्वरूप को लिपिबद्ध किया है; इसमें चतुराई/ होशियारी अथवा समन्वय/समझौता करने की कोई बात नहीं है। ___द्रव्य अर्थात् वस्तु का स्वभाव अनादिकाल से स्वयमेव ही नित्यानित्यात्मक है। श्रावकाचार के प्रथम प्रणेता अथवान्यायशास्त्र के प्रतिष्ठापक महान तार्किक आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में वस्तु तो नित्यानित्यात्मक ही है, उसका निषेध करनेवाले हम कौन हो सकते हैं? 'द्रव्य जैसा है, उसका वैसा ही कथन करना'- यही जिनधर्म का मत है। सांख्य तथा बौद्ध, दोनों ही वस्तु के एक अंश का कथन करनेवाले होने से असत्य के प्रतिपादक हैं - ऐसा हमें पक्का निर्णय होना आवश्यक है। द्रव्य की अवस्थाएँ बदलनेवाला - यह द्रव्यत्वगुण, सामान्यगुण होने से छह जातियों के द्रव्यों अथवा पृथक्-पृथक् अनन्तानन्त समस्त द्रव्यों में रहता है; अतः प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने द्रव्यत्वगण के कारण ही परिवर्तन होता था, हो रहा है और होता रहेगा - ऐसी सत्य वस्तुव्यवस्था समझ में आती है। १७३. शंका - यदि किसी पदार्थ का कोई उपयोग न किया जाए तो वह जैसा है, वैसा ही अनन्तकाल तक रहेगा; उसमें परिवर्तन कहाँ हो रहा है? समाधान - भाई! परिवर्तन (बदलाव) के बिना कोई वस्तु रहती नहीं है। मान लीजिए कि कोई बालक ७-८ वर्ष की उम्र में ही दाँतों से चबाकर खाना बन्द कर दे; रोटी, चना, मूंगफली आदि सभी पदार्थ मिक्सी में पीसकर या पानी अथवा दूध में गलाकर/पतलाकर निगलता रहे तो भी उसके दाँत विशिष्ट उम्र व्यतीत होने पर हिलने लगेंगे और समय पाकर गिर भी जाएँगे; क्योंकि दाँत, स्कन्धरूप पुद्गल हैं, उनमें भी द्रव्यत्वगुण है, इस कारण उनमें प्रतिसमय परिवर्तन होता ही रहता है। इसी कारण दाँत विशिष्ट उम्र बीत जाने पर हिलने लगते हैं, ढीले हो जाते हैं; अतः इस स्वाभाविक परिणमन को कौन रोक सकता है? (76)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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