SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ जिनधर्म-विवेचन १४९ १६७. प्रश्न - फिर क्या द्रव्य और उसकी पर्यायें सर्वथा अभिन्न ही होती हैं? उत्तर - ऐसा भी नहीं है। द्रव्य और उसकी पर्यायें, कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होती हैं। अनन्त सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवन्तों द्वारा कथित वस्तु-व्यवस्था ही आश्चर्य और आनन्दकारी है। प्रत्येक द्रव्य नित्य रहते हुए भी बदलता है और बदलते हुए भी नित्य रहता है। वस्तुस्वभाव ही नित्यानित्यात्मक है। जबकि द्रव्यार्थिकनय से नित्य अंश द्रव्य कहलाता है और पर्यायार्थिकनय से अनित्य अंश पर्याय । जैसे - भगवान महावीर का जीव - पुरुरवा भील, मारीचि, शेर आदि की पर्यायों से अनित्य रहते हुए भी सर्व पर्यायों में जीव, जीवरूप से अखण्ड और नित्य ही रहा है। मनुष्य भी बाल, युवा, वृद्ध अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए मनुष्यरूप ही रहता है। भगवान पार्श्वनाथ का जीव अपने पूर्व दसों भवों में और वर्तमान सिद्ध अवस्था में भी जीव ही है। __अनादि-अनन्त मात्र जीवपने को देखते हैं तो नित्यता ध्यान में आती है, इस नित्यता को जीवद्रव्य कहते हैं। जीव, जीवरूप में रहकर भी अनेक अवस्थाओं को प्राप्त करता रहता है, उन अवस्थाओं को ही पर्याय कहते हैं। इसप्रकार द्रव्य और पर्यायों को एक साथ रहने में कोई बाधा नहीं आती। यह जो जीवादि द्रव्यों में अनेक अवस्थाओं का परिवर्तन/बदलाव चलता रहता है। यह परिवर्तनरूप कार्य, द्रव्यत्वगुण के कारण होता है; यही विषय यहाँ समझना है। द्रव्यत्वगुण की परिभाषा में जो निरन्तर शब्द आया है, वह भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निरन्तर अर्थात् बीच में अन्तर रहे बिना सदैव है। कुछ मिनिट या एक सैकेण्ड या समयमात्र के लिए भी अवस्था का बदलना रुकता हो - ऐसा नहीं है। सैकेण्ड से भी अतिसूक्ष्म काल समय द्रव्यत्वगुण-विवेचन का है। 'समय' से कोई छोटा काल का विभाग होता ही नहीं है। समयसमय पर प्रत्येक अवस्था नियम से बदलती ही रहती है। १६८. प्रश्न - पण्डितों के पण्डित श्री गोपालदासजी बरैया ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में द्रव्यत्वगुण की जो परिभाषा दी है, वह क्या अन्य शास्त्रों में भी मिलती है? उत्तर - हाँ, हाँ; क्यों नहीं मिलती? अनेक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में द्रव्यत्वगुण का कथन किया है, जो निम्नानुसार है - १. आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा ९ में कहा है - जीवो परिणमदि जदा सुहेण असहेण वा सहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो, हवदि हि परिणाम सब्भावो ।। जीव, परिणामस्वभावी होने से जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ होता है और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है, तब शुद्ध होता है। २. प्रवचनसार गाथा १६४ के तृतीय चरण में 'परिणामादो भणिदं' - ऐसा कहकर परिणमन स्वभाव अर्थात् द्रव्यत्वगुण बतलाया है। आचार्य अमृतचन्द्र और आचार्य जयसेन ने भी गाथा की टीका में परिणमनस्वभाव का स्पष्टीकरण किया है। ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थ की गाथा २१७ में स्वामी कार्तिकेय एवं उसकी उत्थानिका में पण्डित श्री जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "परिणमन की शक्ति स्वभावभूत सब द्रव्यों में है। सब द्रव्य अपनेअपने परिणमन के उपादानकारण हैं।" ४. आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने समयसार की टीका करते हुए कलश ५२ में लिखा है - “वस्तु एक ही सदा परिणमित होती है, एक के ही सदा परिणाम होते हैं और एक की ही परिणति (क्रिया) होती है; क्योंकि अनेकरूप होने पर भी वस्तु एक ही है, भेदरूप नहीं।" ५. समयसार गाथा ३७२ की टीका में भी आचार्य अमृतचन्द्र ने परिणमन-स्वभाव को उदाहरणसहित अच्छा स्पष्ट किया है।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy