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द्रव्यत्वगुण - विवेचन
।। मङ्गलाचरण ।।
द्रव्यत्वगुण इस वस्तु को, जग में पलटता है सदा; लेकिन कभी भी द्रव्य तो. तजता न लक्षण सम्पदा । स्वद्रव्य में मोक्षार्थी हो, स्वाधीन सुख लो सर्वदा; हो नाश जिससे आज तक की, दुःखदायी भव कथा ।। ‘द्रव्यत्व' नामक सामान्यगुण, प्रत्येक वस्तु की पयार्यों को सदा बदलता/पलटता रहता है; लेकिन प्रत्येक वस्तु, प्रतिसमय बदलते हुए भी अपनी लक्षणरूपी सम्पदा का कभी त्याग नहीं करती; अतः प्रत्येक जीव को मोक्षार्थी होकर स्वद्रव्य में ही लीन होना चाहिए तथा अपना स्वाधीन सुख भोगना चाहिए; जिससे भव्य जीवों के अनादिकाल के संसारजनित दुःख का नाश होवे और अविनाशी अनन्त सुख की प्राप्ति होवे ।
१६४. प्रश्न - द्रव्यत्वगुण के कथन की क्या आवश्यकता है? उत्तर - द्रव्यत्वगुण का महत्त्व हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं -
१. जीवादि छह द्रव्य अनादिनिधन होने से नित्य ही हैं; तथापि पर्याय की अपेक्षा से वे द्रव्य सतत बदलते रहते हैं अर्थात् नित्य द्रव्य, अनित्य पर्याय अंश के साथ ही रहता है; अतः वस्तु नित्यानित्यात्मक है - इस परम सत्य का ज्ञान कराने के लिए द्रव्यत्वगुण का कथन आवश्यक है।
२. वस्तु की परिणमनशीलता अर्थात् किसी भी वस्तु की स्थिि सदैव एक-सी नहीं रहती - यह स्पष्टतया समझने के लिए भी द्रव्यत्वगुण का विवेचन करना अति आवश्यक है।
३. मैं किसी भी वस्तु की अवस्था बदल सकता हूँ - इस मिथ्या मान्यता को दूर करने के लिए भी द्रव्यत्वगुण का कथन करना अनिवार्य है।
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द्रव्यत्वगुण - विवेचन
४. अपना हित-अहित मैं स्वयं ही करता हूँ, कोई ईश्वर या कर्मादिक नहीं - ऐसा सत्यार्थ ज्ञान कराने के लिए द्रव्यत्वगुण का ज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है ।
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१६५. प्रश्न- द्रव्यत्वगुण किसे कहते हैं?
उत्तर- जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्थायें निरन्तर बदलती रहती हैं; उसे द्रव्यत्वगुण कहते हैं।
१६६. प्रश्न - द्रव्य की अवस्थायें निरन्तर बदलती रहती हैं; इसका अर्थ तो यह हुआ कि द्रव्य नहीं बदलता, मात्र उसकी अवस्थायें ही बदलती हैं; इसलिए हमें प्रश्न उत्पन्न होता है कि द्रव्य और उनकी अवस्थायें क्या अलग-अलग रहती हैं?
उत्तर - नहीं, द्रव्य और उसकी पर्यायें कोई पृथक्-पृथक् नहीं रहती हैं - इसका स्पष्टीकरण आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय शास्त्र में किया है । तत्सम्बन्धी गाथा ११ एवं उसकी संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है -
" द्रव्य का उत्पाद या विनाश नहीं है, सद्भाव है। उसकी पर्यायें ही विनाश, उत्पाद और ध्रुवता करती हैं।
यहाँ दोनों नयों के द्वारा द्रव्य का लक्षण विभक्त किया गया है। (अर्थात् दो नयों की अपेक्षा से द्रव्य-लक्षण के दो विभाग किये गये हैं।) सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायों के सद्भावरूप त्रिकाल - अवस्थायी (त्रिकाल स्थित रहनेवाले), अनादि-अनन्त द्रव्य के विनाश और उत्पाद उचित नहीं हैं, परन्तु उसकी पर्यायों के सहवर्ती कुछ (पर्यायों) का ध्रौव्य होने पर भी अन्य क्रमवर्ती (पर्यायों) के विनाश और उत्पाद होना घटित होते हैं; इसलिए द्रव्य, द्रव्यार्थिक- आदेश (द्रव्यार्थिकनय के कथन) से उत्पादरहित, विनाशरहित, सत् स्वभाववाला ही जानना चाहिए और वही (द्रव्य), पर्यायार्थिक- आदेश (पर्यायार्थिकनय के कथन) से उत्पादवाला तथा विनाशवाला जानना चाहिए यह सब निरवद्य (निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध) है; क्योंकि द्रव्य और पर्यायों का अभेद (अभिन्नपना) है । "