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जिनधर्म-विवेचन
दुःख का कारण है यह भ्रान्ति उत्पन्न होने लगती है। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो जो अधिक पैसा खर्च होने से दुःख हुआ है, वह लोभ कषाय जागृत होने से हुआ है; परन्तु अज्ञानी, ज्ञान को ही दुःख का कारण मानने लगता है, जो सर्वथा असत्य है ।
६. आत्मा के ज्ञाता-दृष्टापने की श्रद्धा करना ही सिद्धत्व-प्राप्ति का सच्चा कारण है। वस्तुस्वरूप के सत्य श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा गया है। मैं जाननस्वभावी भगवान आत्मा हूँ, इसकी स्वीकृति होते ही मोक्षमार्ग का पथ प्रशस्त हो जाता है, इसी मार्ग पर चलना, यही तो सच्चा मोक्षमार्ग है और यही वास्तविक वीतरागता है।
जैसे लौकिक जीवन में हम जानते हैं कि यदि किसी गरीब व्यक्ति को धनी बनना है तो वह विशिष्ट धनवान पुरुष की सेवा करता है तथा जिस विधि से धन कमाया जाता है, उसे सीखता है और उसी प्रकार से धन कमाने का प्रयत्न करता है तो उसे भी निश्चितरूप से धन की प्राप्ति होती है। इसी विधि से अनेक धनार्थी मनुष्यों को धन कमाने का कार्य करते-करते करोड़पति बनते हुए हम प्रत्यक्ष में देखते हैं।
इसीप्रकार यदि हम अरहन्त-सिद्ध बनने की भावना रखते हैं तो हमें भी जानना चाहिए कि वे किस विधि से अरहन्त-सिद्ध बने हैं, उस विधि को हमें अपनाना चाहिए। जैसे- अरहन्त-सिद्ध भगवान अनुकूलप्रतिकूल परिवर्तनों को मात्र जानते-देखते हैं, राग-द्वेष नहीं करते; वैसे ही संसार अवस्था में रहनेवाले जीव को भी मात्र जानने का ही अपना प्रयोजनभूत कार्य (स्वभाव के अनुसार कार्य) करते रहना चाहिए तो निश्चित ही संसारी जीव भी क्रम-क्रम से प्रगति करते हुए अरहन्त-सिद्ध बने बिना नहीं रहे ।
पुराणों के अनुसार गजकुमार मुनिराज, सुकमाल मुनिराज, सुकौशल मुनिराज आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
१६३. प्रश्न मुनि बनने पर तो 'मात्र जानना मेरा काम' - यह बात सत्य प्रतीत होती है; किन्तु गृहस्थ अवस्था में तो यह असम्भव है, यही समझना चाहिए न ?
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वस्तुत्वगुण- विवेचन
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उत्तर - नहीं, नहीं; गृहस्थ जीवन में भी 'मात्र जानना मेरा काम ' ऐसी स्वीकृति असम्भव नहीं है। प्रथमानुयोग के ग्रन्थों में ऐसे श्रावकों के अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जिन्होंने 'मात्र जानना मेरा काम' स्वीकार करके प्रत्यक्ष दिखाया है। जैसे- सेठ सुदर्शन पर विषयासक्त रानी के कारण फाँसी पर चढ़ाये जाने का प्रसंग उपस्थित हुआ था, किन्तु सुदर्शन ने अपने प्राणों की भीख नहीं माँगी, वे तो मौन ही रहे थे। उन्होंने 'मात्र जानना मेरा काम' - ऐसे अपने आत्मस्वरूप को स्वीकारते हुए अपने सत्य श्रद्धान और धैर्य का परिचय दिया था। हाँ, पूर्व पुण्य के उदय से वह फाँसी का फन्दा, सुन्दर पुष्पहार बन गया था, यह पृथक् विषय है।
'मोक्षमार्गप्रकाशक' ग्रन्थ के रचयिता तथा क्रान्तिकारी विचारक पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने भी राजा द्वारा हाथी के पैर से कुचलकर मारे जाने के आदेश पर भी 'मैं जाननस्वभावी आत्मा हूँ - इस श्रद्धा का परिचय देते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी, क्षमायाचना नहीं की थीं । जैसे - रामायण में सीताजी की सुरक्षा हेतु लक्ष्मणजी ने लक्ष्मण-रेखा खींची थी और कहा था कि 'आप इस रेखा के बाहर मत जाना। रेखा के अन्दर आप पूर्ण सुरक्षित हैं, बाहर खतरा है' परन्तु सीताजी ने लक्ष्मण की बात न मानकर उसका उल्लंघन किया, परिणामस्वरूप उनके सामने खतरा उपस्थित हुआ और छद्मभेषी रावण के द्वारा उनका हरण कर लिया गया ।
वैसे ही जब तक यह जीव 'मैं जाननस्वभावी हूँ- इस सीमा में रहता है; तब तक उसे पर कर्तृत्व की वासना, मिथ्याभाव तथा नहीं रहती। लेकिन अपनी जाननस्वभावी सीमा को पार करते ही यथार्थ / सम्यक् मतिरूपी सीता को अज्ञानरूप पर-कर्तृत्व-बुद्धि का रावण हरण कर लेता है और संसार परिभ्रमणरूपी रामायण घटित हो जाता है; अतः 'मात्र जानना मेरा काम' - इस वस्तुत्वगुण के मर्म को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।
इस प्रकार 'वस्तुत्वगुण' का १२ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है।