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जिनधर्म-विवेचन
१५३. प्रश्न - वस्तुत्वगुण किसे कहते हैं?
उत्तर - जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थक्रियाकारिपना (प्रयोजनभूतक्रिया) होता है, उसे वस्तुत्वगुण कहते हैं।
१५४. प्रश्न - अर्थक्रियाकारिपने से क्या आशय है?
उत्तर - प्रत्येक द्रव्य, अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करता है अथवा द्रव्य में जो अपनी प्रयोजनभूत क्रिया होती है, उसे ही 'अर्थक्रियाकारिपना' कहते हैं।
इसप्रकार हम कह सकते हैं - जिस शक्ति के कारण प्रत्येक द्रव्य, अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करता है अथवा प्रत्येक द्रव्य में जो अपनी प्रयोजनभूतक्रिया होती है, उस शक्तिविशेष को ही वस्तुत्वगुण कहते हैं।
१५५. प्रश्न - वस्तुत्वगुण के सम्बन्ध में आगम में कहाँ-कहाँ किन-किन शब्दों में कथन आया है?
उत्तर - वस्तुत्वगुण के सम्बन्ध में निम्न आगम-प्रमाण प्राप्त होते हैं -
१. आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार शास्त्र की गाथा ७१ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - "इस जगत् में जो वस्तु है, वह (अपने) स्वभावमात्र ही है और स्व का भवन (होना) वह स्वभाव है; इसलिए निश्चय से ज्ञान का होना या परिणमना सो आत्मा है और क्रोधादि का होना परिणमना, सो क्रोधादि है।"
२. आचार्यश्री देवसेन विरचित आलापपद्धति शास्त्र के गुण-व्युत्पत्ति अधिकार के सूत्र ९५ में आया है - “वस्तुनो भावः वस्तुत्वं, सामान्यविशेषात्मकं वस्तु अर्थात् वस्तु का जो स्वभाव अर्थात् सामान्य विशेषात्मक स्वभाव है, उसे वस्तुत्वगुण कहते हैं।"
३. “वस्तु का जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक अर्थक्रियाकारित्व है, उसे वस्तुत्व कहते हैं।"
४. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गाथा २२५ में आया है - “जो वस्तु
वस्तुत्वगुण-विवेचन
१३९ अनेकान्त-स्वरूप है, वही नियम से कार्यकारी है; क्योंकि लोक में अनेक धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है।"
१५६. प्रश्न - वस्तुत्वगुण के स्वरूप को उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए?
उत्तर - वस्तुत्वगुण अर्थात् प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव के अनुसार कार्य करना, यह वस्तु का वास्तविक स्वरूप है।
जैसे- कोई वृद्ध व्यक्ति है, उसे आँखों से स्पष्ट दिखाई नहीं देता है; वह चश्मे के नम्बर को बदलते-बदलते परेशान हो जाता है। यदि वह कल्पना करे कि भविष्य में मुझे कानों से देखना और आँखों से सुनना सुखदायक होगा; जिससे मुझे चश्मे के नम्बर भी नहीं बदलने पड़ेंगे और अपना काम भी होता रहेगा; क्योंकि अपने पास कान भी दो हैं और आँखें भी दो । मात्र उनका काम बदलना है।
यहाँ आपसे प्रश्न है कि इस आँख-कान के काम को बदलने के विचारों से क्या आप सहमत हैं? क्या यह सम्भव है कि कोई मनुष्य कानों से देख सके अथवा आँखों से सुन सके?
आपका स्पष्ट उत्तर होगा कि यह नहीं हो सकता: क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय अपना-अपना ही काम कर सकती है। निमित्तरूप से आँखें, देखने का काम छोड़कर और कुछ नहीं कर सकती । कान, सुनने का काम छोड़कर और कुछ नहीं कर सकते । इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं -
१. कानों (कर्णेन्द्रिय) का स्वभाव या कार्य 'शब्द सुनना' है। २. आँखों (नेत्रेन्द्रिय) का स्वभाव या कार्य 'वर्ण देखना है। ३. नाक (घ्राणेन्द्रिय) का स्वभाव या कार्य 'गन्ध सँघना' है। ४. जीभ (रसनेन्द्रिय) का स्वभाव या कार्य 'रस चखना' है। ५. स्पर्शनेन्द्रिय का स्वभाव या कार्य 'स्पर्श जानना' है।
अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय का काम अपने स्वभाव के अनुसार पृथक्पृथक् ही है; अतः हम विचार कर सकते हैं कि जहाँ पाँचों इन्द्रियों का काम अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करने का है।
इसप्रकार जब लोक में सब वस्तुओं का स्वभाव भिन्न-भिन्न है तो जीवादि छहों द्रव्यों का स्वभाव भी भिन्न-भिन्न क्यों नहीं हो सकता?
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