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जिनधर्म-विवेचन
अवश्य ही छह द्रव्यों का स्वभाव भिन्न-भिन्न ही है। अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों की इस सम्बन्ध में क्या आज्ञा है? हमें भी यह विषय तर्क और युक्तियों से किस प्रकार समझ में आ सकता है; यह विचारणीय है।
अत्यन्त अल्पबुद्धि मनुष्य को पाँचों इन्द्रियों के सर्व कार्य और स्वभाव जानने में आते हैं। पुद्गल के स्वभाव / लक्षण को आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के अध्याय ५, सूत्र २३ में कहा है - 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः अर्थात् स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण गुणवाले पुद्गल होते हैं।'
क्या यह पुद्गलद्रव्य अपने लक्षण अर्थात् स्वभाव को छोड़कर कुछ अन्य काम कर सकता है? जैसे टी.वी. को ही ले लीजिए, वह ब्लैकएण्ड व्हाइट हो या रंगीन, वह दर्शकों को उस पर प्रसारित होनेवाले चित्रादि को दिखाएगा ही, पर वह स्वयं कभी नहीं देख / जान सकता है; क्योंकि जिसका जो स्वभाव होता है, उसी के अनुसार वह कार्य करता है, अन्य प्रकार से नहीं ।
इसीप्रकार फैक्स मशीन से देश-विदेश के पत्र, क्षणभर में छपकर सामने आ जाते हैं, पर वह मशीन उन पत्रों को पढ़ नहीं सकती, जान नहीं सकती; क्योंकि यह उसका स्वभाव ही नहीं है। ऐसे ही हमें टेप रिकार्डर आदि पुद्गलों पर घटाकर भी वस्तुस्वभाव को समझना चाहिए।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय, सूत्र ८ में जीव का लक्षण / स्वभाव उपयोगो लक्षणम् कहा है। 'उपयोग अर्थात् ज्ञानदर्शन जीव का लक्षण / स्वभाव है।' जीव, किसी भी अवस्था में हो, चार गतियों में हो अथवा पंचम गति 'सिद्ध' अवस्था में हो; वहाँ भी वह मात्र जानने-देखने का ही काम करेगा, अन्य काम- जैसे दुकान चलाना, कुटुम्ब का संचालन करना, देश का उद्धार करना, अपने शरीर को स्वस्थ रखना आदि कार्य कर ही नहीं सकता।
इतिहास हमारे सामने है। भारत में अनेक स्थानों पर मूर्ति-भंजकों ने भगवान आदिनाथ आदि तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को खण्डित किया है। एलोरा आदि ऐतिहासिक स्थानों पर भी मूर्तिभंजकों ने तीर्थंकर सर्वज्ञ
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वस्तुत्वगुण - विवेचन
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भगवन्तों की मूर्तियाँ तोड़ी हैं। क्या जिस समय वे मूर्तियाँ खण्डित / तोड़ी जा रही थी, उस समय उस दुष्कृत्य का ज्ञान, अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों को हुआ था या नहीं? अरे! उन्हें अनन्त काल पहले ही यह ज्ञान हो गया था कि इस समय यह कार्य होगा। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होना भी स्वाभाविक है कि ऐसा अनिष्ट कार्य होता हुआ देखकर भी वे क्या कर रहे थे? हमारा उत्तर है कि वे कुछ नहीं कर रहे थे।
पुनः १५७. प्रश्न उत्पन्न होता है कि कुछ नहीं कैसे ?
इसका समाधान यह है कि अरे! वे सर्वज्ञ भगवान भी ज्ञानस्वभावी आत्मा हैं, अतः अपने स्वभाव के अनुसार जानने का काम अवश्य कर रहे थे।
पुनः १५८. प्रश्न उपस्थित होता है कि वे जानते हुए भी उन दुष्ट पुरुषों को ऐसा निन्द्य कार्य करने से रोक क्यों नहीं रहे थे? वे तो अनन्तवीर्य के धनी थे, अतः उन्हें तो रोकना चाहिये था। वे किसी अन्य व्यक्ति के अनिष्ट कार्य को भले ही न रोकें; पर अपनी तथा अपने समान अन्य तीर्थंकर भगवन्तों की मूर्तियाँ तो उन्हें सुरक्षित रखना चाहिये था। अपनी ही मूर्तियों को सर्वज्ञ भगवान ने सुरक्षित क्यों नहीं रखा ? - यह हमारी समझ में नहीं आता?
इस प्रश्न का भी यही उत्तर है कि भगवान अनन्त वीर्य के स्वामी होने पर भी वे अपने जानन देखन स्वभाव की मर्यादा का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं?
जैसे- भारत का प्रधानमन्त्री भी अपने देश में जो चाहे परिवर्तन कर सकता है, पर अन्य किसी भी देश के कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्रधानमन्त्री को भी नहीं है। इसीतरह एक जीवद्रव्य, पुद्गलादि पाँच अजीवों तथा अपने को छोड़कर, अन्य अनन्त जीवद्रव्यों में कुछ नहीं कर सकता है; क्योंकि यह उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात है।
ज्ञाता-दृष्टा रहना अर्थात् जानना-देखना ही जीव का अपना काम है; अन्य कुछ करना, उसका कार्य है ही नहीं। इमली खट्टी भी रहे और नमक के समान खारी भी हो जाए, यह कैसे सम्भव है? इसीप्रकार जीव, जानता-देखता भी रहे और घर-गृहस्थी तथा दुकान-मकान की व्यवस्था का काम भी करता रहे यह सम्भव नहीं है ।