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जिनधर्म-विवेचन इसप्रकार हमें यह पता चलता है कि यदि मैं मोक्षमार्ग प्रगट करूँगा तो मोक्ष प्राप्त करके अनन्तकाल तक मोक्ष में ही रहूँगा, किन्तु यदि मैं मोक्ष जाने का सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ नहीं करूँगा तो संसार की चार गतियों में परिभ्रमण करना ही पड़ेगा।
४. आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने समयसार ग्रन्थ के बन्धाधिकार में जीवों को जिलाने और मारने के विकल्पों का आगमगर्भित युक्तियों के द्वारा विशेषरूप से खण्डन करते हुए स्पष्टीकरण किया है। उसे तत्त्वजिज्ञासुओं को अवश्य पढ़ना चाहिए।
५. प्रत्येक जीव अनादि-अनन्त है, अतः इस विश्व को किसी ने बनाया है और कोई इसे नष्ट कर सकता है- ऐसी मिथ्या मान्यता मिट जाती है।
६. अस्तित्व की अपेक्षा सभी द्रव्य समान ही हैं; अतः उनमें विषमता का भाव स्वयमेव निकल जाता है।
वास्तव में देखा जाए तो अस्तित्व आदि अनन्त सामान्यगुण, सब द्रव्यों में समानरूप से विद्यमान रहते हैं। इतना ही नहीं - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि विशेषगुण भी सभी जीवों में समानरूप से पाये जाते हैं। इस अपेक्षा से ही 'आलापपद्धति' नामक ग्रन्थ में ग्रन्थकर्ता ने ज्ञानादि गुणों को जीव के सामान्यगुणों में गर्भित किया है; अतः सभी मनुष्य समान हैं, कोई ऊँचा-नीचा नहीं हैं - यह विषय भी समझ में आता है।
वस्तुस्थिति तो एकेन्द्रिय से लेकर सैनी पन्चेन्द्रिय तक सभी जीव, सामान्य अपेक्षा से समान ही हैं - यह अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों द्वारा प्रतिपादित अनादिनिधन परम सत्य उपदेश है; अतः सर्व जीवों के प्रति समताभाव उदित होने से विषमता स्वयमेव ही निकल जाती है।
७. प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व स्वतन्त्र है - ऐसा ज्ञान होने से परद्रव्य में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि का सहज नाश हो जाता है।
अस्तित्वगुण-विवेचन
१३५ द्रव्य, सत्स्वरूप है अर्थात् अस्तित्वगुण से सम्पन्न है; इसका अर्थ है कि द्रव्य अनादिनिधन, स्वयम्भू एवं स्वतन्त्र है। द्रव्य की स्वतन्त्रता स्वीकारने पर, द्रव्य में रहनेवाले गुणों को भी अनादिनिधन, स्वयम्भू एवं स्वतन्त्र स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है; क्योंकि गुणों से ही तो द्रव्य बना है तथा द्रव्य की स्वतन्त्रता में ही विश्व, अकृत्रिम सिद्ध होता है; क्योंकि द्रव्य के समूह को ही विश्व कहते हैं। द्रव्य और गुणों की स्वतन्त्रता के कारण ही उनमें होनेवाली पर्यायें भी पर की अपेक्षा से रहित सिद्ध हो जाती हैं।
पर्याय की इतनी विशेषता समझना आवश्यक है कि एक द्रव्य या उसके गुणों की पर्यायों के उत्पन्न होने के समय अन्य द्रव्य की पर्यायों पर अनुकूलता अथवा प्रतिकूलता के निमित्तरूप व्यवहार का आरोप आता है; अतः पर्याय का कथन निमित्तसापेक्ष भी होता है, लेकिन एक द्रव्य की पर्याय को अन्य द्रव्य की पर्याय उत्पन्न करती है - ऐसा नहीं है; अतः सहज ही पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्वपने का मिथ्याभाव नष्ट हो जाता है।
८. मैं किसी अन्य जीव को उत्पन्न नहीं कर सकता और मुझे भी किसी अन्य जीव ने उत्पन्न नहीं किया है - ऐसा स्वीकार करने पर अभिमान और हीनभाव का नाश होता है। __ अन्य जीव को जन्म देने का भाव अभिमान का उत्पादक है। यथार्थ वस्तुस्वरूप का विचार करने पर कोई जीव किसी अन्य जीव को उत्पन्न कर ही नहीं सकता; क्योंकि प्रत्येक जीवद्रव्यस्वतन्त्र है।
माता-पिता, अपनी सन्तान के शरीर की उत्पत्ति में मात्र निमित्त हैं तथा वे भी शरीर की उत्पत्ति में मात्र निमित्त भी तब होते हैं, जब कोई जीव किसी अन्य गति से माता के पेट में स्वयमेव अपने पाप-पुण्य के अनुसार आता है; अतः मानकषायरूप अभिमान का भाव, अस्तित्वगुण को जानकर नहीं हो सकता।
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