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________________ गुण-विवेचन गुण-विवेचन अब यहाँ से गुण का विवेचन प्रारम्भ होता है। यद्यपि पहले द्रव्यविवेचन में भी गुण की परिभाषा दी गई है, पर्याय एवं द्रव्य के साथ गुणों के सम्बन्ध में भी कुछ लिखा गया है; तथापि अब यहाँ गुण का स्वतन्त्र प्रकरण लिखते हैं। चूँकि यहाँ गुण के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक लिखना है। इस कारण यहाँ फिर से गुण की परिभाषा देना अनिवार्य हो गया है। पाठकों को विषय अच्छी रीति से आत्मसात् हो - इस भावना से यहाँ पुनरावृत्ति हो रही है, उसे दोष न जानें - यह निवेदन है। ११२. प्रश्न - द्रव्य-विवेचन के पश्चात् गुण का स्वरूप समझना क्यों आवश्यक है? उत्तर - द्रव्य की परिभाषा में 'गुणों का समूह' यह वाक्यांश आया है; इस कारण से गुण क्या हैं? - ऐसा प्रश्न स्वाभाविक ही मन में उत्पन्न होता है; अतः द्रव्य के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझने के तुरन्त बाद गुण के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा उदित होना स्वाभाविक भी है। ११३. प्रश्न - गुण किसे कहते हैं? उत्तर - जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहते हैं, उन्हें गुण कहते हैं। ११४. प्रश्न - द्रव्य में गुण किस प्रकार रहते हैं? उत्तर - द्रव्य में गुण किस प्रकार रहते हैं - यह तथ्य दृष्टान्त द्वारा समझाने का प्रयास करते हैं। जैसे - कोई धनवान मनुष्य, गर्मी के दिनों में २० वस्तुओं को मिलाकर ठण्डाई बनाता है। उस ठण्डाई में छोटी सुई को डुबोकर निकाला जाए। फिर इस सुई के अग्रभाग पर लगी हुई ठण्डाई को अपनी जीभ पर रखकर स्वाद लेने को कहा जाए और आपसे पूँछा जाए कि सुई की नोक पर व्याप्त ठण्डाई को चखने पर कितने पदार्थों का स्वाद आया? आपका सहज उत्तर आएगा कि जितने पदार्थों से मिलाकर ठण्डाई बनी है, उतने सभी पदार्थों का स्वाद आया अर्थात् एक साथ उस अत्यल्प ठण्डाई में भी २० पदार्थों का स्वाद आ गया; उसीप्रकार जीवद्रव्य अथवा पुद्गलदि द्रव्यों के एक-एक प्रदेश पर भी नियम से अनन्त-अनन्त गुण एक ही स्थान पर होते रहते हैं। ११५. प्रश्न - 'गुण, द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में रहते हैं' - इसका क्या आशय है? उत्तर - गुण और द्रव्य का क्षेत्र एक ही है, किसी का छोटा या बड़ा नहीं है; उन्हें एक-दूसरे से अलग भी नहीं किया जा सकता। इसप्रकार गुण और द्रव्य की क्षेत्र सम्बन्धी अखण्डता का ज्ञान होता है। धर्म-अधर्मद्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र (तिल में तेल के समान) अर्थात् लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त हैं। लोकाकाश का एक प्रदेश भी धर्म-अधर्मद्रव्य से रहित नहीं है, सहित ही है तथा धर्म-अधर्मद्रव्य का जितना क्षेत्र है, उतना ही क्षेत्र गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व इत्यादि गुणों का भी है। यही 'द्रव्य के सम्पूर्ण भाग' से तात्पर्य है। ११६. प्रश्न - यदि द्रव्य के कुछ क्षेत्र (हिस्से/भाग) में गुण न हों तो क्या आपत्ति है? उत्तर - आपत्ति ही आपत्ति है। द्रव्य के जिस क्षेत्र (विभाग) में गुण नहीं होंगे तो वहाँ द्रव्य भी नहीं रहेगा; क्योंकि गुणों के समूह को ही तो द्रव्य कहते हैं। यदि वहाँ गुण नहीं हो तो वहाँ द्रव्य भी कैसे होगा? ___ जैसे, जिस लोकाकाश के क्षेत्र में धर्मद्रव्य तो रहेगा, लेकिन गतिहेतुत्व गुण नहीं रहेगा तो वहाँ के जीव-पुद्गलों के गमन में धर्मद्रव्य कैसे निमित्त होगा? गुणों के बिना द्रव्य का अस्तित्व ही शक्य नहीं है। इसलिए गुण, द्रव्य के सम्पूर्ण क्षेत्र में रहते ही हैं - ऐसा ही वस्तुस्वरूप है, उसे अवश्य स्वीकारना चाहिए। जैसे, मेरे हाथ में यह पुस्तक है, यह पुद्गलद्रव्य है। पुद्गलद्रव्य में (55)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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