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जिनधर्म-विवेचन उपदेश से आत्मा को जानने की बात भी कही है। आपको भी हमारी विवक्षा समझने का प्रयास करना चाहिए।
१०९. प्रश्न- जब देव शास्त्र-गुरु की महिमा करते-करते ही आत्मा की महिमा आएगी तो आप द्रव्य का स्वरूप जानने से आत्मा की महिमा आती है - ऐसा क्यों समझा रहे हैं?
उत्तर - भाई ! प्रथमानुयोग और चरणानुयोग में देव -शास्त्र-गुरु की विशेष महिमा की बात की जाती है। जबकि यहाँ द्रव्यानुयोग के अनुसार कथन चल रहा है। यहाँ तो आत्मा ही सर्वोपरि है। कुछ काल के लिए सही, पंच परमेष्ठी को अतिशय विनयपूर्वक गौण करके अपनी भगवान आत्मा की अतिशय उपादेयबुद्धिपूर्वक निश्चय सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके ही आत्म-कल्याण सम्भव है।
११०. प्रश्न - यह कैसे ? कुछ समझ में नहीं आया ?
उत्तर - समझ लीजिए कि तीर्थंकर भगवान महावीर के समवसरण में अनेक मुनिराज उनके दर्शन और दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश सुनने के लिए गये हैं। इनमें से कुछ मुनि महाराज उसी समवसरण में बैठे-बैठे ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। बताइए कि मुनिराजों को केवलज्ञान प्राप्त होने में - १. भगवान की दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश सुननेरूप कार्य, २. तीर्थंकर भगवान का दर्शन करनेरूप कार्य और ३. निज शुद्धात्मा का ध्यान करनेरूप कार्य - इन तीनों में से कौन-सा कार्य करते-करते केवलज्ञान की प्राप्ति हुई?
सामान्य अभ्यासी श्रावक भी कहेगा कि आत्मध्यान करते-करते ही मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ ि केवली भगवान बनने के लिए आत्मा का ध्यान ही उपयोगी अर्थात् कार्यकारी है।
वास्तव में देखा जाए तो जिसे मोक्ष की प्राप्ति करना है, उसे मात्र निज शुद्ध आत्मा का ध्यान करना ही एकमात्र उपाय है, अन्य कोई
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सामान्य द्रव्य-विवेचन
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उपाय नहीं है। जब आत्मध्यान ही एकमेव उपाय सिद्ध हुआ तो पंच परमेष्ठी सहज ही गौण हो गए ऐसा विषय स्पष्टरूप से समझ में आ जाता है। आप यह स्पष्ट समझ लें कि ऐसा करने से पंच परमेष्ठी की अविनय कदापि नहीं होती है, बल्कि अतिशय विनय प्रदर्शित होती है; क्योंकि उन्होंने स्वयं यह कार्य किया है तथा उनका स्वयं का उपदेश भी यही है कि हमने इसी विधि से अपना कल्याण किया है और तुम भी इसी विधि से अपना कल्याण करो ।
१११. प्रश्न - मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र उपाय 'आत्मध्यान' ही है - यह तो आपने युक्ति से सिद्ध कर दिया, क्या इसके लिए कोई शास्त्र का आधार भी है?
उत्तर - क्यों नहीं है, विषय की प्रामाणिकता के लिए निम्न प्रकार शास्त्राधार प्रस्तुत हैं। आचार्य श्री पूज्यपादस्वामी ने 'समाधिशतक' ग्रन्थ में श्लोक ३१ द्वारा स्पष्ट किया है -
यः परमात्मा स एवाऽहं योऽहं सः परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नाऽन्यः कश्चिदिति स्थितिः ।। अर्थात् जो परमात्मा है, वह ही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वह ही परमात्मा हैं। इस कारण मैं ही मेरे द्वारा उपास्य हूँ, दूसरा कोई उपास्य नहीं है - यह ही वास्तविक स्थिति है ।
ग्रन्थाधिराज समयसार की प्रथम गाथा की टीका करते समय आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव ने भी ध्येयस्वरूप निज भगवान आत्मा को बिम्ब बताया है और अनन्त सिद्धों को प्रतिबिम्ब कहा है ।
समयसार में अनेक गाथाओं एवं कलशरूप श्लोकों में तथा परमात्मप्रकाश आदि ग्रन्थों में इसी विषय को पुनः पुनः कहा गया है। हमें सूक्ष्मता एवं बहुमान से तथा आत्मकल्याण की भावना से अध्यात्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करना आवश्यक है, इससे विषय पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है।
इसप्रकार यहाँ द्रव्य-विवेचन ८९ प्रश्नोत्तर के साथ पूर्ण होता है। •