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________________ ११० जिनधर्म-विवेचन स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण - ये चार विशेष गुण पाये जाते हैं। यदि हम पुस्तक के एक कोने में स्पर्श, दूसरे में रस, तीसरे में गन्ध और चौथे में वर्ण गुण मानेंगे तो गुण तथा द्रव्य की क्षेत्र सम्बन्धी अखण्डता नष्ट हो जाएगी; अतः हमें पुस्तकरूप पुद्गलद्रव्य के प्रत्येक अणु-अणु में स्पर्शादि चारों गुणों की सत्ता स्वीकारनी होगी, तभी गुण और द्रव्य की क्षेत्र सम्बन्धी अखण्डता सिद्ध होगी। जैसे- गुड़ का ढेला हो, उस ढेले के मात्र ऊपरी भाग में मिठास हो और अन्दर के भाग में मिठास न हो तो उसे गुड़ कैसे कहा जाएगा? यदि मिठास न हो तो वह गुड़ न होकर मिट्टी का ढेला ही बन जाएगा; लेकिन ऐसा होता ही नहीं । गुण तो नियम से द्रव्य के सब भागों में रहते ही हैं, इसलिए गुण की परिभाषा में स्पष्ट बताया गया है कि गुण, द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में रहते हैं । इस कारण 'गुण, द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में रहते हैं' - यह वाक्यांश द्रव्य की क्षेत्र सम्बन्धी अखण्डता का ज्ञान कराता है। हम आप जीव हैं, जीव ज्ञानादि 'गुणमय' हैं, ज्ञानादि 'गुणवाला' नहीं है। 'गुणमय' शब्द में तो द्रव्य और गुण का तादात्म्य सम्बन्ध समझ आता है। 'गुणवाला' कहने से द्रव्य और गुण की भिन्नता का होता है, इसलिए 'द्रव्य गुणमय है' - ऐसा जानना ही यथार्थ है। द्रव्य की गुणमयता को स्पष्ट करने के लिए ही द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में गुण रहते हैं ऐसा कथन ज्ञानियों ने किया है। ११७. प्रश्न - गुण की परिभाषा में ' (जो द्रव्य की) सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहते हैं।' इस वाक्यांश का क्या आशय है? उत्तर - गुण और द्रव्य त्रैकालिक हैं, अतः गुण का द्रव्य में कभी अभाव नहीं होता । इसप्रकार गुण और द्रव्य की काल सम्बन्धी अखण्डता का पता चलता है। पुस्तकरूप पुद्गलद्रव्य में स्पर्शादि गुण किसी विशेष समय पर ही रहते हों अर्थात् मात्र रात्रि में ही रहते हों, दिन में नहीं तो इस मान्यता से (56) गुण- विवेचन १११ गुण और द्रव्य की काल सम्बन्धी अखण्डता खण्डित हो जाती है। पुस्तकरूप पुद्गलद्रव्य में अनादि से स्पर्शादि गुण रहते आये हैं और भविष्य में भी अनन्तकाल पर्यन्त रहेंगे। यही तो गुण और द्रव्य की काल सम्बन्धी अखण्डता है। जैसे सुबह तो द्रव्य में अनन्त गुण रहते हैं और दोपहर में अतिधूप के कारण से गुणों की संख्या कुछ कम हो जाती है तथा रात को तो अन्धेरे के कारण द्रव्य में से गुण विशेषरूप से कम हो जाते हैं। फिर सुबह पुनः अनन्त गुण हो जाते हैं - ऐसा नहीं होता । न २४ घण्टों में गुण हीनाधिक होते हैं, न वर्षा-धूप- ठण्ड के कारण गुणों की संख्या कम-ज्यादा होती है। अनादिकाल से अनन्तकाल पर्यन्त प्रत्येक द्रव्य में अनन्त ही गुण रहते हैं। ११८. प्रश्न - प्रथमकाल, द्वितीयकाल, तृतीयकाल, चतुर्थकाल, पंचमकाल, षष्ठकाल, भोगभूमि, कर्मभूमि, आर्यखण्ड, म्लेच्छखण्ड इत्यादि कारणों से तो गुणों के स्वरूप में भेद (अन्तर ) तो होता होगा ना ? उत्तर- ऊपर कहा गया है कि अनादिकाल से अनन्तकाल पर्यन्त प्रत्येक द्रव्य में अनन्त ही गुण रहते / होते हैं; अतः उक्त कारणों से भी गुण के स्वरूप में कुछ भी अन्तर नहीं होता - ऐसा हमें निर्णय करना चाहिए। ११९. प्रश्न- गुण का ज्ञान करानेवाली अन्य भी अनेक परिभाषाएँ शास्त्र (आगम) में हैं क्या? उत्तर - हाँ ! अन्य अनेक परिभाषाएँ हैं; उनमें से नीचे कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं - १. पंचास्तिकाय गाथा १० की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने गुण की परिभाषा दी है- 'वस्तु के अन्वयी विशेष गुण हैं, जो कि द्रव्य में एक ही साथ प्रवर्तते हैं।' २. तत्त्वार्थसार में आचार्य अमृतचन्द्र ने ही अध्याय ३, श्लोक ९ में
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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