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जिनधर्म-विवेचन
लेना चाहिए। इसप्रकार अधिकार प्राप्त धर्म, अधर्म और आकाश ( एवं काल) द्रव्य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं; यह अपने-आप प्रकरण से सिद्ध हो जाता है।"
भावशक्ति- जीवादि द्रव्य में प्रतिसमय परिणमनरूप कार्य होता है, उसे भाववती शक्ति कहते हैं। इस शक्ति का विशेष स्पष्टीकरण पंचाध्यायी, अध्याय दूसरा, श्लोक २५-२७ के अर्थ एवं भावार्थ में आया है, वह इसप्रकार है -
“भाव और क्रियावान् पदार्थों के नाम जीव और पुद्गल - ये दोनों द्रव्य, भाव और क्रिया दोनों से युक्त हैं तथा सभी छह द्रव्य, भाववतीशक्ति विशेष से युक्त हैं।
क्रिया और भाव का लक्षण जो प्रदेशों के हलन चलनरूप परिस्पन्द होता है, वह क्रिया कहलाती है और प्रत्येक वस्तु में होनेवाले प्रवाहरूप परिणमन को भाव कहते हैं। यह बात असम्भव भी नहीं है; क्योंकि सभी पदार्थ, प्रति समय परिणमन करते रहते हैं; उनमें से कितने ही द्रव्य कदाचित् प्रदेश- चलनात्मक भी देखे जाते हैं।
यहाँपर पदार्थों में दो प्रकार की योग्यता का विचार किया गया हैएक क्रियारूप और दूसरी भावरूप ।
प्रदेश- चलनात्मक योग्यता का नाम क्रिया है और परिणमनशील योग्यता का नाम भाव है- इन दोनों में यह अन्तर है कि क्रिया में प्रदेशों का परिस्पन्द देखा जाता है, पर भाव में पर्यायान्तररूप होना ही विवक्षित है।
क्रियारूप योग्यता तो केवल जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही होती है; पर दूसरी प्रकार की योग्यता छहों द्रव्यों में पायी जाती है। इसी कारण तत्त्वार्थसूत्र में छहों द्रव्यों को उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य स्वभाववाला मान करके भी धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन चार द्रव्यों को निष्क्रिय माना गया है।
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सामान्य द्रव्य - विवेचन
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इसप्रकार जीव और पुद्गल, ये दोनों प्रकार की योग्यतावाले तथा शेष चार द्रव्य, केवल भावरूप योग्यतावाले सिद्ध होते हैं।
पर यह क्रियारूप योग्यता अयोगी जीवों के और सिद्धालय में स्थित सिद्ध जीवों के नहीं पायी जाती।
इतना विशेष है और मुक्त होने पर जीव का यद्यपि ऊर्ध्वगमन देखा जाता है, पर तब भी उनके प्रदेशों में चांचल्य नहीं होता।"
समयसार शास्त्र की टीका लिखते समय आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने ४७ शक्तियों का वर्णन किया है। वहाँ भावशक्ति का अर्थ इस प्रकरण से अलग है।
प्रदेश की अपेक्षा जीवादि द्रव्यों का विभाजन -
इसके पहले भी प्रदेश की परिभाषा बताई गई है; तथापि यहाँ अस्तिकाय एवं अकाय के सन्दर्भ में प्रदेश की परिभाषा फिर से बताई जा रही है।
१. प्रदेश की व्युत्पत्ति तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय २ के ३८वें सूत्र की टीका में आचार्यश्री पूज्यपाद ने निम्नानुसार बताई है - "प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशाः परमाणवः । अर्थात् एक परमाणु जितने स्थान पर दिखाई देता है, वह प्रदेश है। "
२. प्रवचनसार की गाथा १४० की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र प्रदेश सम्बन्धी कहते हैं- “एक परमाणु जितने आकाश के भाग में रहता है, उतने भाग को 'आकाशप्रदेश' कहते हैं और वह सूक्ष्मरूप से (परिणत जगत के) समस्त परमाणुओं को अवकाश देने में समर्थ है। "
३. कषायपाहुड़ में भाग २/२२/१२/७/१० में आचार्यश्री गुणधर ने कहा है- “जिसका दूसरा हिस्सा नहीं हो सकता - ऐसे आकाश के अवयव को प्रदेश कहते हैं।"
आकाश के प्रदेश के माध्यम से हम यहाँ जीवादि छह द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या जानने का प्रयास करते हैं अर्थात् कितने और कौनकौन से द्रव्य अस्तिकाय हैं और कौन अकाय हैं।