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जिनधर्म-विवेचन
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में - 'रूपिणः पुद्गलाः' इस सूत्र के द्वारा 'पुद्गल मूर्तिक हैं' ऐसा कहा है।
३. आचार्यश्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ५६३ - ५६४ में कहा है- “द्रव्य के सामान्यतया दो भेद हैंएक जीवद्रव्य, दूसरा अजीवद्रव्य; इनमें भी प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। - एक रूपी दूसरा अरूपी ।
जीवों में जितने संसारी जीव हैं, वे सब रूपी हैं; क्योंकि उनका कर्म - पुद् गल के साथ एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध है। तथा जो जीव, कर्म से रहित होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, वे सब अरूपी हैं; क्योंकि उनसे कर्मपुद्गल का सम्बन्ध सर्वथा छूट गया है।
अजीवद्रव्यों के पाँच भेद हैं- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें एक पुद्गलद्रव्य रूपी है और शेष धर्म, अधर्म, आकाश, काल- ये चार द्रव्य अरूपी हैं।"
क्रियावती एवं भाववतीशक्ति की अपेक्षा छह द्रव्यों का विभाजन - क्रियावती शक्ति - एक क्षेत्र से (आकाश के एक प्रदेश से ) दूसरे क्षेत्र में (आकाश के दूसरे प्रदेश में) गमन करने की सामर्थ्य को क्रियाव शक्ति कहते हैं। यह शक्ति, मात्र जीव एवं पुद्गलद्रव्य में है अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य में यह क्रियावती शक्ति नहीं होती है।
इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय ५, सूत्र ७ एवं उसकी टीकाओं आचार्य पूज्यपाद एवं आचार्य अकलंकदेव विस्तार से लिखते हैं
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निष्क्रियाणि च । ॥७ ॥
अर्थात् धर्मादिक चार द्रव्य निष्क्रिय हैं।
'अन्तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्पन्न होनेवाली जो पर्याय, द्रव्य को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्त कराने की कारण है, वह क्रिया कहलाती है और जो इसप्रकार की क्रिया से रहित हैं, वे निष्क्रिय कहलाते हैं।
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सामान्यद्रव्य - विवेचन
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१०४. प्रश्न - यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्पाद नहीं बन सकता; क्योंकि घटादि का क्रियापूर्वक ही उत्पाद देखा जाता है। और उत्पाद नहीं बनने से उनका व्यय भी नहीं बनता; अतः सब द्रव्य, उत्पाद आदि तीन रूप होते हैं - इस कल्पना का व्याघात हो जाता है ?
उत्तर - नहीं, क्योंकि इनमें भी उत्पाद आदि तीन, अन्य प्रकार से बन जाते हैं। यद्यपि इन धर्मादिक द्रव्यों में क्रियानिमित्तक उत्पाद नहीं है तो भी इनमें अन्य प्रकार से उत्पाद माना गया है। उत्पाद-व्यय दो प्रकार का होता है - स्वनिमित्तक और परप्रत्यय के निमित्त से ।
स्वनिमित्तक के अन्तर्गत प्रत्येक द्रव्य में आगमप्रमाण से अनन्त अगुरुलघुगुण ( शक्त्यंश अर्थात् अविभाग-प्रतिच्छेद) स्वीकार किये गये हैं, जिनका षट्स्थानपतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है; अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से होता है।
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इसी प्रकार परप्रत्यय के निमित्त से भी उत्पाद और व्यय होता है। जैसे ये धर्म-अधर्म और आकाशद्रव्य, क्रम से अश्व आदि की गति, स्थिति और अवगाहन में कारण हैं। चूँकि उनकी गति आदि में क्षण-क्षण में अन्तर पड़ता है, इसीलिए इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिए। इस प्रकार इन धर्मादि द्रव्यों में भी परप्रत्यय की अपेक्षा उत्पाद और व्यय का व्यवहार किया जाता है।
१०५. प्रश्न- यदि धर्मादिक द्रव्य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गलों की गति आदिक के कारण नहीं हो सकते; क्योंकि जलादि पदार्थ क्रियावान् होकर ही मछली आदि की गति आदि में निमित्त देखे जाते हैं, अन्यथा नहीं?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि चक्षु-इन्द्रिय के समान ये बलाधान में निमित्तमात्र है; जैसे - चक्षु-इन्द्रिय, रूप को ग्रहण करने में निमित्तमात्र है; इसलिए जिसका मन विक्षिप्त है, उसके चक्षु-इन्द्रिय के रहते हुए भी रूप का ग्रहण नहीं होता; उसी प्रकार इस प्रकरण में समझ