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जिनधर्म-विवेचन
सामान्य द्रव्य-विवेचन
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नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव विरचित द्रव्यसंग्रह शास्त्र की गाथा २४ व २५ के अनुसार अस्तिकाय का लक्षण एवं उनकी प्रदेश संख्या इसप्रकार है -
“जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश - ये पाँच द्रव्य हैं, इसलिए इन्हें 'अस्ति' कहा जाता है और काय की भाँति बहुप्रदेशी हैं, इसलिए इन्हें 'काय' कहते हैं। इस प्रकार से ये पाँच द्रव्य 'अस्तिकाय' हैं। कालाणु एक-एक प्रदेश वाला होता है; इसलिए इसकी काय संज्ञा नहीं है, उसमें कायपना नहीं है, इस कारण से उसे अस्तिकाय में नहीं गिना जाता।"
तात्पर्य यह है -
१. प्रत्येक जीव, समस्त लोकाकाश में प्रसारित हो सकता है और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं; इसलिए जीव भी असंख्यात प्रदेशी है।
२-३. धर्म और अधर्म भी समस्त लोकाकाश में तिल में तेल की भाँति विस्तृत हैं, इसलिए वे दोनों द्रव्य भी असंख्यात प्रदेशी हैं।
४. आकाश के अनन्त प्रदेश हैं; क्योंकि आकाश लोकाकाश के बाहर भी है, उसकी कोई मर्यादा नहीं है।
५. पुद्गल के अनन्त परमाणु हैं, परन्तु एक परमाणु स्वतन्त्र भी होता है और दो, चार, बीस, हजार, लाख आदि संख्यात, असंख्यात
और अनन्त परमाणु मिलकर छोटे-बड़े स्कन्ध बनते हैं। इस कारण से पुद्गल को संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशी कहा जाता है।
६. कालाणु, एक-एक अलग-अलग स्वतन्त्र रहता है, वे मिलकर स्कन्ध नहीं होते; इस कारण कालद्रव्य कायवान नहीं हैं अर्थात् अकाय है। इसी अपेक्षा से शास्त्र में इन्हें अनस्तिकाय भी कहा है।
१०६. प्रश्न - जीवादि द्रव्यों का स्वरूप जानने से हमें क्या लाभ है? उत्तर - जीवादि द्रव्य को जानने से हमें अनेक लाभ होते हैं -
१. जीवादि अनन्त द्रव्यों में से किसी भी एक द्रव्य की पूर्णता के लिए किसी अन्य द्रव्य से कुछ भाग उधार लेना बिलकुल आवश्यक नहीं
है; अतः मैं जीवद्रव्य अनादि से परिपूर्ण हूँ, मुझे किसी से कुछ लेना आवश्यक नहीं है।
भगवान महावीर की आत्मा ने अन्य सिद्ध भगवन्तों से कुछ हिस्सा उधार लिया होगा तभी पूर्ण सिद्ध बने होंगे - ऐसा बिलकुल नहीं है। वे पुरुरवा भील और मारीच की अवस्था में तथा इससे पूर्व की अन्य अवस्थाओं में भी अनादिकाल से स्वयमेव ही परिपूर्ण थे।
समस्त पुद्गल और धर्मादि अन्य चारों द्रव्य भी परिपूर्ण और परद्रव्यों से निरपेक्ष ही हैं; अतएव किसी भी द्रव्य को अन्य किसी भी द्रव्य की अणुमात्र की भी अपेक्षा नहीं है।
२. यदि किसी भी जीवद्रव्य अथवा पुदगलादि पाँच अजीवद्रव्यों में से किसी भी एक द्रव्य का कर्ता भगवान को मान लिया जाए तो विश्व, अनादि-अनन्त और स्वयंसिद्ध नहीं होता। इस ईश्वर-कर्तृत्व की मान्यता का आगमप्रमाण से विरोध होने से अनन्त अरहन्तादि पाँच परमेष्ठियों से भी विरोध का भाव एवं महा विपरीतता का प्रसंग आएगा।
३. जब भगवान महावीर का आत्मा मारीचि एवं पुरुरवा भील की अवस्था में था, उस समय भी उस जीव में तीर्थंकर भगवान महावीर बनने की पर्याय सुप्त/गुप्त रीति से (भविष्य के गर्भ में अथवा शक्तिरूप से) विद्यमान थी।
मेरी भविष्यकालीन संसार की शेष अवस्थाएँ तथा आगामी सिद्धपर्याय आज भी मेरे में निश्चितरूप से है - ऐसा सहज ही विश्वास उत्पन्न होता है।
४. जीवादि सभी द्रव्यों में परस्पर भिन्नता का बोध जागृत होता है - • जीव चेतन है और पुद्गलादि पाँचों द्रव्य अचेतन हैं। • धर्मद्रव्य गमन में निमित्त है तो अधर्मद्रव्य ठहरने में निमित्त हैं।
पुद्गलद्रव्य रूपी है, शेष सभी द्रव्य अरूपी हैं।
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