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जिनधर्म-विवेचन एक इन सब द्रव्यों को रहने के लिए और अपना-अपना कार्य करने के लिए कोई न कोई स्थान होना आवश्यक है।
यदि कोई स्थान ही नहीं होगा तो ये द्रव्य कहाँ रहकर अपना कार्य करेंगे? कहाँ गमन और कहाँ स्थितिरूप कार्य करेंगे?
इसप्रकार इन द्रव्यों को स्थान देना भी एक स्वतन्त्र कार्य हुआ। इस कार्य को करने के लिए द्रव्यों के आकारों के अनुरूप कोई अति विशाल एक द्रव्य होना ही चाहिए; जो इन सब द्रव्यों को स्थान देने में समर्थ हो। इस स्थान-दान के कार्य को करनेवाले द्रव्य को ही आकाशद्रव्य कहते हैं।
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लोक जीवन में जल, अनेक पदार्थों को स्थान / अवकाश अर्थात् जगह देता हुआ देखने में आता है। पानी में आप धीरे-धीरे नमक डालते जाओ। पानी का आकार तो जितना है, उतना ही रहेगा; लेकिन बहुत सारा नमक पानी में समा जाएगा। फिर उसी पानी में धीरे-धीरे शक्कर डालते जाओ तो शक्कर भी उसमें घुल जाएगी; लेकिन पानी का आकार उतने का उतना ही रहेगा।
इसीप्रकार एक कटोरी में लबालब पानी भरो। फिर उस कटोरी के पानी में धीरे-धीरे कटोरी भरकर ही राख डालते जाओ, राख उस पानी में समा जाएगी। तदनन्तर उसी कटोरी में एक कटोरी भरकर अनेक सुई को आप धीरे-धीरे उसमें भरते / डालते जाओ तो उसमें उतनी सुइयों को भी स्थान मिलेगा ।
यहाँ कटोरी ने पानी को जगह दी। पानी ने राख को जगह दी। राख सुईयों को जगह दी। लेकिन कटोरी को आकाश ने जगह दी है। कटोरी तो बहुत छोटी है, आकाश ने तो बड़े-बड़े पर्वतादि को भी जगह दी है। यहाँ एक विषय सहज समझ में आता है, आ सकता है कि सबको जगह देनेवाला कोई ना कोई द्रव्य अवश्य होना ही चाहिए, उसी सबसे बड़े आकार वाली वस्तु को ही आकाश कहते हैं।
दशों दिशाओं में हम कितना भी गमन करते जाएँगे तो भी आकाश
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विश्व - विवेचन
का अन्त नहीं आएगा। इस कारण स्पर्शादि रहित, अरूपी और अखण्ड तथा विशाल अर्थात् आकाश अनन्त है- यह विषय समझ में आता है।
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इस आकाश को लोकाकाश एवं अलोकाकाश, इस तरह दो रूप में भी माना जाता है। यहाँ दोनों आकाश में इतना ही भेद है कि जहाँ जीवादिक छहों द्रव्यों का अस्तित्व है, उस आकाश के विभाग को लोकाकाश कहते हैं तथा जहाँ मात्र आकाशद्रव्य ही है, अन्य कोई द्रव्य नहीं; उस अनन्त आकाश के बहुभाग को अलोकाकाश कहते हैं।
१२. प्रश्न- क्या सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तारे आदि जहाँ दिखते हैं, उसी को आकाश कहते हैं अथवा दूसरे स्थान पर भी आकाश है?
उत्तर - सूर्य, चन्द्र तारे आदि जहाँ दिखते हैं, उसे ही आकाश मानना असत्य है, क्योंकि हम जिस स्थान पर रहते हैं, वहाँ भी आकाश है। जमीन खोदते जाएँगे तो वहाँ भी आकाश है। खोदने के बाद वहाँ आकाश उत्पन्न होता है ऐसा भी नहीं है। आकाश सभी दिशाओं में है। आकाश नहीं है - ऐसा कोई स्थान न लोक में है, न अलोक में है; इसलिए आकाशद्रव्य को सर्वव्यापक कहते हैं। हम आप, आकाश में ही रहते हैं एवं गमनागमन करते रहते हैं।
१३. प्रश्न- क्या कालद्रव्य की सिद्धि भी तर्क से हो सकती है? उत्तर - क्यों नहीं? दुनिया में नई-पुरानी वस्तुएँ देखने को मिलती हैं - यह नयापन और पुरानापन, काल के बिना कैसे हो सकता है ?
दुनिया में करोड़ों बच्चे छोटी उम्र के हैं और करोड़ों लोग वरिष्ठ नागरिक हैं - यह विभाजन, व्यवहार काल (समय, मुहूर्त, दिन-रात, महिना, वर्ष ) बिना सम्भव नहीं है। यह षड़द्रव्यमय विश्व अनादि से है और अनन्त काल तक रहनेवाला है - ऐसा कथन भी काल से ही होता है।
प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ काल आदि काल के भेद भी कालद्रव्य के कारण ही हैं। सुबह जल्दी उठना चाहिए, रात को समय पर सो जाना चाहिए - आदि सब कथन भी कालद्रव्य को सिद्ध करते हैं।