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________________ जिनधर्म-विवेचन कालरूप व्यवहार, कोई कवि-कल्पना या भ्रमजाल नहीं है, वस्तुस्थिति है; जो सत्य के धरातल पर सदा से अवस्थित है। यद्यपि इस कालरूप कार्य को मात्र हम भारतवासी ही मानते हों, अन्य विदेशी नहीं - ऐसा भी नहीं है; क्योंकि काल की सत्ता समूचे विश्व को स्वीकार है। कालरूप कार्य का व्यवहार भूतकाल में भी था, भविष्य में भी रहेगा और वर्तमान में तो चल ही रहा है। अतः कालात्मक कार्य के लिए निमित्तरूप द्रव्य की सत्ता मानना भी आवश्यक हो जाता है और उसे ही शास्त्रों में 'कालद्रव्य' कहा जाता है। १४. प्रश्न - आपने छह द्रव्यों की सत्ता की सिद्धि तर्क और यक्ति से तो की, फिर भी आप शास्त्र की शरण नहीं छोड़ना चाहते; शास्त्र की शरण छोड़ने में क्या हानि है? उत्तर - आपका कहना सही है कि हम शास्त्र के विषय को तर्क और युक्ति से सत्य सिद्ध करने का प्रामाणिक प्रयास करते हैं, असत्य सिद्ध करने का नहीं। हम शास्त्रों में कथित सर्वज्ञ भगवान के परम सत्य विषय को छोड़े भी क्यों? शास्त्र की बात स्वयमेव सत्य है और उसे सत्य सिद्ध करने में ही हमारा हित है। जिनधर्म में परीक्षा का अर्थ ही जिनेन्द्रकथित विषय को सत्य सिद्ध करना है। जिनेन्द्र भगवन्तों द्वारा कथित तत्त्वों (विषय) की यह विशेषता है कि वे तत्त्व, तर्क और युक्ति से अबाधित होते हैं। इसी तथ्य को शास्त्र के स्वरूप' के कथन में आचार्य श्री समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में निम्न श्लोक द्वारा स्पष्ट किया है - आप्तोपज्ञ - मनुल्लंघ्य - मदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्व, शास्त्रं कापथघट्टनम् ।।९।। अर्थात् १. जो सर्वज्ञ-वीतराग के द्वारा कथित है, २. जो किसी वादी-प्रतिवादी द्वारा उल्लंघन नहीं किया जा सकता, ३. जिसका दृष्ट अर्थात् प्रत्यक्ष और ४. इष्ट अर्थात् अनुमान प्रमाण द्वारा विरोध नहीं आता, ५. जो तत्त्व अर्थात् जैसा वस्तु का स्वरूप है, वैसा कथन या विश्व-विवेचन उपदेश करनेवाला है, ६. जो सर्व जीवों को हितरूप तथा कुमार्ग अर्थात् मिथ्यामार्ग का निषेध करनेवाला है; इसप्रकार जो छह विशेषणों से सहित है, उसे सच्चा आगम/शास्त्र कहते हैं। ___ आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी भी 'मोक्षमार्गप्रकाशक' के पृष्ठ २५९ पर परिस्पष्ट करते हैं - "यदि जिनवचन और अपनी परीक्षा में समानता हो, तब तो जानें कि सत्य परीक्षा हई है। जब तक ऐसा न हो, तब तक जैसे कोई हिसाब करता है और उसकी विधि न मिले. अपनी चूक को ढूँढता है; उसी प्रकार यह अपनी परीक्षा में विचार किया करे।" छह द्रव्यों की सिद्धि के लिए श्री रामजीभाई दोशी द्वारा मोक्षशास्त्र में दिया गया चिन्तन बहुत युक्तिसंगत है; इसलिए यहाँ उसके आधार से निम्न कथन करते हैं - जीव और पुद्गल द्रव्य की सिद्धि (१) 'जीव' एक पद है, इसीलिए वह जगत् की किसी वस्तु या पदार्थ को बतलाता है। हमें यहाँ यह विचार करना है कि वह क्या है? इसके विचार करने में हम एक मनुष्य का उदाहरण लेते हैं, जिससे विचार करने में सुगमता हो। (२) हमने एक मनुष्य देखा, वहाँ सर्वप्रथम हमारी दृष्टि उसके शरीर पर पड़ी तथा यह भी ज्ञात हुआ कि वह मनुष्य, ज्ञानसहित भी है। वहाँ शरीर को चक्षु आदि इन्द्रियों से देखकर निश्चित किया; किन्तु उस मनुष्य के ज्ञान का निश्चय इन्द्रियों से निश्चित नहीं किया; क्योंकि ज्ञान इन्द्रियगम्य नहीं है। ज्ञान का निश्चय उस मनुष्य के वचन या शरीर की चेष्टा के आधार पर किया है। इसप्रकार हमारी नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा शरीर का निश्चय किया, इस ज्ञान को हम इन्द्रियजन्य कहते हैं, लेकिन उस मनुष्य में ज्ञान होने का निश्चय, अनुमानजन्य ज्ञान है। (३) मनुष्य में हमें दो भेद ज्ञात हुए - १. इन्द्रियजन्य ज्ञान से शरीर और २. अनुमानजन्य ज्ञान से ज्ञान । फिर चाहे किसी मनुष्य में वह ज्ञान, (12)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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